भगवान की भक्ति से पितृगण प्रसन्न होते है व उनका का उद्धार होता है ।

चित्रकूट के पास एक श्यामदास नाम के उच्चकोटी के नाम जापक महात्मा थे । एक दिन एक लड़का उनके पास आकर बोला की हमको संसार से विरक्ति होने लगी है । उनसे महात्मा से साधन पूछा तो उन्होंने कहां की भगवान को नाम तुम्हे पसंद हो उसको जपने लग जाओ और वैष्णवी आचार विचार का पालन करो । उसको श्री सीताराम जी का रूप व नाम प्रिय था । वह श्री सीताराम श्री सीताराम इस नाम का आश्रय लेकर भजन करने लगा । कई दिनों तक भजन करता रहा और एक दिन जप करते करते उसको बहुत सी आवाजे आयी – जय हो जय हो । अगले तीन चार दिन फिर कुछ आवाजे आयी – बेटा अति सुंदर, जय हो । उस बालक को लगा की लगता है कुछ गड़बड़ है । वह बालक श्यामदास जी के पास आकर सारी बात बताकर बोला – संत जी, क्या मुझसे कोई अपराध बन रहा है या किसी तरह की बीमारी है ? श्यामदास जी ने ध्यान लगाकर देखा तो प्रसन्न होकर बोले : बच्चा!तेरे इस शरीर के और पूर्व के शरीरों के पितृगण विविध योनियों से मुक्त होकर भगवान के धाम को जा रहे है और वे ही तुम्हारी जय जय कार करते है । कुछ और पितृगण बच गए है । पांच दिनों तक तुम्हे इनकी आवाज आएगी । इसके बाद बंद हो जाएगी ।

आस्फोट यन्ति पितरो नृत्यन्ति च पितामहाः ।
मद्वंशे वैष्णवो जातः स नस्त्राता भविष्यति ।।
(पद्मपुराण)

जब किसी वंश मे वैष्णव उत्पन्न होता है (या वैष्णव दीक्षा ग्रहण करता है) तो पितृ पितामह प्रसन्न होकर नृत्य करते है कि हमारे वंश में भगवान का भक्त उत्पन्न हुआ है, अब यह नाम जपेगा कथा सुनेगा संत सेवा करेगा । हमारा तो उद्धार निश्चित है ।

सुंदर कथा १२२ (श्री भक्तमाल – श्री प्रबोधनंद सरस्वती जी) Sri Bhaktamal – Sri Prabodhanand Sarasvati ji

सर्वदा युगल स्वरूप की ही उपासना करनी चाहिए । अकेले श्रीकृष्ण की उपासना करने वाले पातकी होते है ।

गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय के एक महान संत हुए श्रीपाद प्रबोधनंद सरस्वती । एक दिन वे भजन कर रहे –

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।

उसी समय सुंदर तुलसी चंदन की सुगंध आने लगी, ध्यान में  एक नीली ज्योति प्रकट हो गयी । नेत्र खोलकर देखा तो सामने श्रीकृष्ण खड़े है । प्रबोधनंद सरस्वती ने कहा – आप यहां किस कारण से आये है ? श्री कृष्ण ने कहां की आपके भजन से प्रसन्न होकर आपको दर्शन देने आए है । प्रबोधनंद जी ने कहा – क्या हम भजन इसलिए करते है की हमे आपका दर्शन प्राप्त हो ? श्रीकृष्ण बोले: मेरे एक नख का दर्शन हो जाए इस कामना से महात्मा लोग हजारो लाखो वर्ष तपस्या करते है ।

प्रबोधनंद जी ने हाथ जोड़ कर कहा – तुम इतनी देर मेरे पास आये हो, मेरी स्वामिनी मेरी प्रिया जू को कितना विरह हो रहा होगा । मेरे कारण मेरी स्वामिनी को विरह सहन करना पडा । मेरे भजन करने का हेतु केवल प्रिया जु का सुख है । यदि आपको दर्शन देना ही है तो युगल रूप मे दर्शन दीजिए, मै अकेले श्रीकृष्ण का दर्शन कभी नही करना चाहता । इस भाव को सुनकर भगवान बहुत प्रसन्न हुए और प्रबोधनंद जी को श्री राधाकृष्ण दोनो का दर्शन हुआ । श्री प्रिया प्रियतम ने प्रबोधनंद जी को आशीर्वाद दिया और अंतर्धान हो गए ।

गौरतेजो बिना यस्तु श्यामतैजः समर्चयेत्‌ ।
जपेद्वा ध्यायते वापि स भवेत्पातकी शिवे ।।

गोपालसहस्त्रनाम मे भगवान शिव कहते है : हे पार्वती ! जो गौरतेज (श्री राधा) के बिना श्यामतेज (श्रीकृष्ण) की उपासना, ध्यान, पूजन करता है वह पातकी (घोर पापी) होता है ।

परम आदरणीय श्री श्री अतुलकृष्ण गोस्वामी महाराज द्वारा दी हुई शिक्षा के आधार पर लिखा हुआ लेख। लेखन मे भूल चल क्षमा करें । प्रस्तुति – अक्षय कुमार ।

श्री अवध और ब्रज मे सिद्ध महात्मा वृक्ष आदि के रूप मे आज भी भजन करते रहते है ।

१. अयोध्या मे एक कीर्तनिया बाबा थे सियाराम बाबा । मानव निर्मित छाया मे नही जाते थे, एक आम के वृक्ष के नीचे रहकर भजन करते है । लगभग ३ घंटा विश्राम करते थे और बाकी समय श्री सीताराम नाम का जाप व कीर्तन करते । उनको नींद मे खर्राटे लेने की आदत थी, धीरे धीरे वह खर्राटे बड़े जोर के होने लगे । एक दिन पेड़ को टिक कर विश्राम कर रहे थे, की अचानक पीछे धड़ाम से गिरे । उठकर देखा तो वृक्ष था ही नही । बाबाजी सोचने लगे इतना विशाल वृक्ष गया कहां ? उसी समय सामने एक तेजस्वी महात्मा प्रकट हुए । बाबा ने प्रणाम करके पूछा की आप कौन है ? उन महात्मा ने कहा की हम हजारो साल से धाम मे इस वृक्ष के स्वरूप से रहकर भजन करते है ।

बाबा ने पूछा – मानव शरीर धारण करने का सामर्थ्य होनेपर भी वृक्ष के रूप में भजन किस कारण से ? सिद्ध महात्मा बोले – मानव शरीर मे शरीर, संसार का धर्म, कभी किसी से चर्चा, बातचीत में बहुत समय व्यय हो जाता है । बाबा ने कहा – हम आपकी क्या सेवा कर सकते है ? सिद्ध महात्मा बोले की तुम हमे नाम श्रवण कराते हो इससे हम तुमपर प्रसन्न है परंतु इन दिनों खर्राटे बडी जोर के लगाते हो, हमको भजन मे बाधा होती है । बाबा बोले – नींद मे शरीर क्या करता है इसपर हमारा कोई जोर नही चलता है । आप ही अपनी ओर से कृपा करके इन खर्राटों से मुक्ति दिलाए । सिध्द महात्मा बोले – अब तुम चिंता नही करना, निद्रा देवी तुम्हारे पास आएगी ही नही । अब हर समय भजन करते रहना । ऐसा कहकर बाबा पुनः अपने वृक्ष स्वरूप मे आ गए । सियाराम बाबा को उस दिन के बाद कभी नींद आयी ही नही ।

२. ब्रज क्षेत्र – पूछरी मे श्री गौर गोविंददास बाबाजी एक कुटी बना कर भजन करते थे। उनके साथ उनके एक सेवक लाडलीदास बाबा और कुटी के बाहर बेल के वृक्ष के रूप मे एक महात्मा निवास करते थे । वृक्ष छोटा और रूखा सूखा था । बाबा नित्य प्रति उस वृक्ष को जल देते और प्रणाम करते । दोनो मे कई बार सत्संग भी होता था । प्रथम बार जब उस वृक्ष को फल आये, तो उन महात्मा ने अपने स्वरूप मे प्रकट होकर कहा – तुमने मुझे सींचकर बड़ा किया है और फलदार बनाया है तो मेरी एक विनती है की इन फलों को ब्रज के संतो के पास पहुंचा देना । वे इन फलों को ठाकुर सेवा मे लगाएंगे । श्री गौर गोविंददास बाबा ने ऐसा ही किया ।

एक बार कीसी ने उस वृक्ष पर धोती सुखाने के लिए डाल दी । महात्मा ने गौर गोविंद दास को स्वप्न मे कहा – मेरे ऊपर किसी को कपड़े सुखाने मत दिया करो, भजन मे विघ्न पड़ता है ।

३. जब मलूकपीठ मे एक ओर फाटक बनाने की बात चली तो बीच मे एक विशाल नीम का पेड़ था । लोगो ने वर्तमान पीठाधीश्वर से कहा की इस वृक्ष को हटाना पड़ेगा । या तो इस वृक्ष को काट दिया जाए या दवाई डालकर सूखा दिया जाए । वर्तमान पीठाधीश्वर के मन मे वृंदावन के सभी जीवों के प्रति पूज्य भाव है, उनके मन को यह बात पीड़ा पहुँचाने लगी । उन्होंने सबको घर भेजते हुए कहा की कल विचार करेंगे । उन्होंने उस वृक्ष को प्रणाम करके कहां की आप जो भी महात्मा या सखी सहचरी है, आपको पीड़ा होने से अपराध बनेगा । आपसे विनती है की आप स्वतः ही किसी अन्य स्थान पर भजन करें । अगली सुबह ही वह हराभरा पेड़, पूरा सुख चुका था । उसके पत्ते झड़ गए थे और उसकी मोटी सी टहनी बहुत ही पतली हो चुकी थी ।

अवध के महात्मा श्री रामचन्द्र दास द्वारा सुना हुआ, दूसरी कथा ब्रज के भक्त पुस्तक मे हमने पढ़ी थी, तीसरा अनुभव खुद श्री राजेंद्रदास बाबाजी ने बताया था ।

सुंदर कथा १२१ (श्री भक्तमाल – श्री राधिका दास जी) Sri Bhaktamal – Sri Radhika das ji

संत श्री राधिका दास जी की सिद्ध मानसी सेवा –

बिहार के मिथिला क्षेत्र में गंगा के तट पर रहने वाले एक उच्च कोटि के महात्मा हुए है । वे सर्वथा भोगों और संसार से बहुत दूर रहते थे, अत्यंत निःस्वाद भोजन लेते थे, सदा नाम जाप मे लगे रहते थे। वे मानसिक रूप से नित्य श्री गीतगोविन्द का पाठ करते रहते थे । उनके आश्रम के सभी साधको को निःस्वाद भोजन ही मिलता था, स्वप्न में भी मिर्च, मसाला, दही, दूध, मिष्टान्न, अचार का दर्शन नही होता था । उनके वृद्धावस्था की घटना है, एक दिन बाबा लेटे थे और सेवक उनके चरण दबा रहे थे । उसी समय बाबा को खांसी आने लगी, जैसे उन्हें उठा कर बिठाया वैसे खांसी और तेज हो गयी और कुछ गाढ़ी लाल वस्तु और रक्त जैसे लाल छींटे उनके वस्त्रो पर गिरा । सम्पूर्ण कक्ष में दिव्य सुगंध आने लगी । शिष्यों को पहले तो लगा कि रक्त गिरा है परंतु ठीक से देखा तो पता लगा यह तो ताम्बूल (पान) है ।

सभी शिष्य सोचने लगे कि बाबा तो कभी पान खाते नही, सदा निःस्वाद भोजन करते है और चलकर कही जा भी नही सकते पान खाने । सभी सोच मे पड गए कि यह पान आया कहां से और बाबा ने इसको कब खाया ? बाबा तो राधा राधा राधा राधा कहते हुए रो रहे थे, धीरे धीरे वे समाधि से बाहर आये । निकट के शिष्यों ने जब इस पान का रहस्य पूछा तो बाबा ने बताया कि मानसी सेवा के समय हमने श्री प्रिया लाल जी को कुसुम सेज पर पौढा कर ताम्बूल (पान) दिया , उसमे से थोड़ा सा ताम्बूल प्रसाद के रूप में प्रिया लाल जी ने प्रेम पूर्वक मुझे खिलाया दिया । वही दिव्य पान के कण बाबा के मुख से गिरे । पान तो खाया था भाव राज्य (मानसी) मे परंतु वह प्रत्यक्ष प्रकट हो गया।

सुंदर कथा १२० (श्री भक्तमाल – श्री बिहारी दास जी) Sri Bhaktamal – Sri Bihari das ji

सर्वत्र श्री भगवान के दर्शन और धाम वासियों के प्रति श्रद्धा –

एक रसिक संत हुए श्री बिहारीदास जी । मथुरा की सीमा पर ही भरतपुर वाले रास्ते पर कुटिया बनाकर भजन करते थे। एक दिन पास ही के खेत मे शौच करने चले गए । उस दिन खेत के मालिक को कुछ आवाज आयी तो जाकर बाबा को खूब मुक्के मार कर पीट दिया और शोर करके अपने कुछ सखाओ को भी बुलाया । उन्होंने लंबी लकड़ियां और डंडा लेकर बाबा को पीटना शुरू किया तो बाबा के मुख से बार बार निकलने लगा – हे प्रियतम, हे गोकुलचंद्र, हे गोपीनाथ !! सबने मारना बंद किया, थोड़ी देर मे सुबह हुई तो देखा कि यह कोई चोर नही है , यह तो पास ही भजन करने वाला महात्मा है । आस पास के लोग जमा हुए और उन्होंने पुलिस को बुलाया ।

पुलिस ने आकर बाबा को गाड़ी में डाला और दवाखाने मे भर्ती करवाया । डॉक्टर ने दावा करके पट्टियां बांध दी । इसके बाद पुलिस इंसेक्टर ने पूछा – बता बाबा ! क्या घटना हुई है ? बाबा बोले मै शौच को गया था उसी समय कन्हैया वहां आ गयो ! उसने खूब मुक्के चलाये । वो कन्हैया खुद बहुत बड़ा चोर है फिर भी उसने अपने सखाओ को बुलाकर कहां की खेत मे चोर घुस गया है । सखाओ ने छड़ी और लाठियों से पिटाई करी । बाद में कन्हैया ने पुलिस को बुलवाया और दवाखाने मे भर्ती कराया । फिर वही कन्हैया ने डॉक्टर बनकर इलाज किया और अब वही कन्हैया इंस्पेक्टर बनकर मुझसे पूछता है की तेरे साथ क्या घटना हुई ?

सबने कहां की बाबा तो अटपटी सी बाते करता है, इनको कुछ दिन आराम की आवश्यता है । उसी रात बाबा भाव मे डूबकर हरिनाम कर रहे थे तब उनके सामने नीला प्रकाश प्रकट हुआ और श्रीकृष्ण सहित समस्त सखाओ का दर्शन उनको हुआ । भगवान ने कहा – बाबा ! ब्रज वासियो के प्रति तुम्हारी भक्ति देखकर मै प्रसन्न हूँ । तुमने ब्रजवासियो को दोष नही दिया और सबमे मेरे ही दर्शन किए । भगवान ने अपना हाथ बाबा के शरीर पर फेरकर उन्हें ठीक कर दिया । भगवान ने कहा तुम्हे जो माँगना है मांग लो । बाबा ने संतो का संग और भक्ति का ही वरदान मांगा ।

इस घटना से शिक्षा मिलती है की रसिक संतो की तरह सभी मे श्रीभगवान का ही दर्शन करना है और धाम वासियों को भगवान के अपने जन मानकर उनमे श्रद्धा रखनी चाहिए ।

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सुंदर कथा ११९ (श्री भक्तमाल – श्री दयाल दास जी) Sri Bhaktamal – Sri Dayaal das ji

१. श्री रामजी द्वारा पर्वत शिला उठाकर छाया देने वाली गुफा के रूप में स्थापित करना –

श्री रामस्नेही सम्प्रदाय के एक संत हुए श्री दयालदास जी महाराज । अहर्निश श्री राम नाप का जाप करते हुए वे राजस्थान के खेड़ापा क्षेत्र में विराजते थे । अपने गुरुदेव से आज्ञा लेकर वे तपस्या करने एक पहाड़ पर आसन लगाकर बैठ गए । उस क्षेत्र मे जल बहुत कम है और सूखा होने के कारण उस पहाड़ पर वृक्ष भी नही थे । तपस्या करते करते बहुत समय बीता । एक दिन तेज गर्मी पड रही थी , प्रभु रामचंद्र जी को बडी दया आयी । रामजी ने एक पहाड़ का बड़ा हिस्सा उठाकर ऐसे रख दिया कि दयालदास जी के शरीर पर छाया हो गयी । खुले पहाड़ के ऊपर रखी हुई वह पत्थर की शिला ऐसी। रखी कि वह गुफा जैसे दिखाई देने लगी । आज भी प्रभु राम द्वारा रखी उस शिला के दर्शन होते है । बहुत काल बाद जब शरीर का होश हुआ तो बड़ी विशाल शिला देखर आश्चर्य मे पड गए । प्रभु की कृपा का अनुभव करके पुनः नाम मे लीन हो गए ।

२. इंद्र द्वारा कामदेव और अप्सरा को भेजना –

श्री दयालदास जी महाराज तपस्या मे ऐसे लग गए कि इंद्र को भय हो गया । इंद्र ने सोचा ये संत कलयुग मे इतनी कठोर साधना क्यों कर रहे है ? कही इन्हें इन्द्रपद की कामना तो नही है ? उसने बहुत प्रयास किये , सिद्धियां दयालदास जी के सामने प्रकट होकर बोली – हमे स्वीकार करो । जिन सिद्धियों के लिए साधक बड़े बड़े प्रयास करते है उन सिद्धियों की ओर इन्होंने ध्यान तक नही दिया । अंत मे इंद्र ने कामदेव और स्वर्ग की एक अप्सरा को इनकी तपस्या मे विघ्न डालने भेजा । कामदेव ने अपना सम्पूर्ण बल लगाकर इनके मन मे काम उत्पन्न करने का प्रयास किया । कामदेव ने सुंदर सुगंध, भोजन पदार्थ, पुष्प लताएं सभी वस्तुओं को प्रकट किया ।

अप्सरा ने भी अपने रूप और नृत्य के द्वारा इनको आकर्षित करना चाहा । चार दिन तक उसने अपनी सम्पूर्ण कलाओं से इनको मोहित करने का प्रयास किया । उसने ऐसा नृत्या किया की उसके चरण चिन्ह भूमि पर बन गए पर दयालदास जी रामनाम मे ऐसे डूबे रहे की अप्सरा की ओर देखा तक नही । अब अप्सरा को भारी अपमान का अनुभाव हुआ । अंत मे क्रोध में भरकर बोली कि अरे ! कैसा महात्मा है ? मैने चार दिन नृत्य किया और इतना परिश्रम करके उत्तम से उत्तम श्रृंगार किया । कलयुग मे तो साधारण मल मूत्र के स्त्री पुरुष से जीव का पतन हो जाता है । मेरा अति कोमल सुंदर दिव्य शरीर है ।

आकृष्ट होते या न होते , पर एक बार मेरी ओर देख तो लेते । वापस देवराज इंद्र को जाकर क्या उत्तर दूंगी ? । एक पृथ्वी के मनुष्य को मोहित नही कर सकी । मै श्राप देती हूं की तुम्हारी नेत्र ज्योति चली जाए और तुम्हारे नेत्रो मे भयंकर वेदना हो । श्री दयालदास जी परम संत थे, चाहते तो अपने तपस्या के बल से अप्सरा को भस्म कर सकते पर इन्होंने अप्सरा पर क्रोध नही किया । श्राप को स्वीकार कर लिया । जब इनके नेत्रो मे बहुत वेदना होने लगी तब अपने गुरुदेव श्री रामदास जी को जाकर सारी घटना सुनाई ।

३. श्री रामजी की कृपा से नेत्रज्योति की प्राप्ति –

श्री गुरुदेव जी ने कहा – श्री राम जी ने सदा अपने भक्तों पर कृपा की है , उन्ही प्रभु को भक्तों की याद दिला दिलाकर करुणा भरे स्वर मे पुकारो । प्रभु स्वयं तुम्हारी इस पीड़ा को दूर करेंगे । श्री दयालदास जी महाराज ने ५२ भक्तो का समरण करके प्रभु को सुनाया । उनके द्वारा रचे इसी ग्रंथ का नाम श्री करुणासागर है । ग्रंथ पूर्ण होनेपर श्री राम जी बालरूप मे इनकी गोद मे आकर बैठ गए । इनके नेत्रो पर अपने हाथ फेरते हुए बोले – मै आपकी गोद मे बैठा हूं, मुझे देखो । रामजी के ऐसा कहते ही श्री दयालदास जी की नेत्र ज्योति पुनः प्रकट हो गयी ।

४. इंद्र ने प्रकट होकर माला गुंथी –

एक दिन भजन करते करते श्री दयालदास जी महाराज की माला का धागा टूट गया । उनके पास सुई धागा नही था । मोटा धागा आदि ढूंढने जाएंगे तो भजन का समय व्यर्थ चला जायेगा । यह देखकर देवराज इंद्र उनके पास मोटा धागा और सुई लेकर प्रकट हुए । देवराज इंद्र ने स्वयं अपने हाथ से उनकी तुलसी माला गुंथी । उस माला के आज भी दर्शन होते है ।

श्री खेड़ापा वाले सरकार जी और हमारे श्री राजेंद्रदास बाबा इन संतो की कृपा से जैसा सुना और मुझे स्मरण रहा वैसे लिखने का प्रयास किया । भूल चूक के लिए दास को क्षमा करें ।

Image Credits – Sri Ramdham Kherapa

सुंदर कथा ११८ (श्री भक्तमाल – श्री गौरांग दास जी) Sri Bhaktamal – Sri Gaurang das ji

सखीरूप से मानसी सेवा और श्री कृष्ण का रसगुल्ला –

ब्रज के परम रसिक संत बाबा श्री गौरांग दास जी को एकबार भगवान ने स्वप्न दिया कि मेरा एक विग्रह गिरिराज जी मे अमुक स्थान पर है, उसको निकालकर नित्य सेवा करो। बाबा बड़ी प्रेम से ठाकुर जी की सेवा करते । ठाकुर जी रोज बाबा से कुछ न कुछ मांगने लगे की आज मुकुट चाहिए, आज बंशी चाहिए, आज मखान चाहिए , आज बढ़िया पोशाख चाहिए । बाबा ने कहा – मै तो एक लंगोटी वाला बाबा, बिना धन के यह सब चीजे कहां से लाऊंगा? बाबा चलकर संत श्री जगदीश दास जी के पास गए और सारी बात बतायी । उन्होंने कहा – अपनी असमर्थता व्यक्त कर दो और मानसी मे ठाकुर जी की सारी मांगे पूरी कर दिया करो । अब बाबा नित्य मानसी सेवा करने लगे ।

एक दिन स्नान कर के भजन करने बैठे और जब उठे तो शिष्यों ने देखा कि उनके कमर और लंगोट पर शक्कर की चाशनी (शक्कर पाक) लगी थी।शिष्यों ने पूछा – बाबा ये चाशनी कैसे लग गयी ? आप तो स्नान करके भजन करने बैठे थे । बाबा ने अपनी मानसी सेवा को गुप्त रखना चाहा और कहा – कुछ नही हुआ, कुछ नही हुआ । जब शिष्यों ने आग्रह करके पूछा तब बताया कि आज मानसी सेवा में मैने सोचा की शरीर से तो मै बंगाली हूं, रसगुल्ला अच्छे बना लूंगा और श्री प्रिया लाल जी को बडे सुंदर रसगुल्ला बनाकर खिलाऊंगा ।

मोटे मोटे रसगुल्ला बनाकर मैने श्री गुरु सखी के हाथ मे दिए और उन्होंने श्री राधा कृष्ण को दिए । राधारानी तो ठीक तरह से तोड तोड कर रसगुल्ला खाने लगी परंतु नटखट ठाकुर जी ने तो बडा सा रसगुल्ला एक बार मे ही मुख में डाल दिया और जैसे ही मुख में दबाया तो बगल मे सखी रूप मे मै ही खड़ा था । ठाकुर जी के उस रसगुल्ले का रस उड़कर मेरे शरीर पर लग गया ।

सिद्ध संतो की कथा देवता आदि भी सुनते है

एक बार भगवत निवास, वृंदावन मे श्रीपाद गौरांग दास बाबाजी भगवान की कथा कह रहे थे । कथा खुले मे होती थी, केवल एक व्यास जी के लिए आसान बिछता था और बाकी सब श्रोता रज में ही बैठा करते । कथा मे श्रीरास लीला का वर्णन करते हुए कहां – जब श्री वृंदावन बिहारी जी गोपियों के संग रास कर रहे थे तब देवताओं को तो रास का दर्शन हुए नही, उन्हें केवल एक नीला तेज दिखाई दिया । उस प्रकाश मंडल को देखकर देवताओं ने वहां फूल बरसाए । जैसे उन्होंने यह प्रसंग सुनाया उसी समय चमकीले सफेद रंग के अलौकिक मोटे मोटे फूल आकाश से बरसने लगे । पहला फूल भागवत जी की पोथी पर गिरा, दूसरा फूल बाबा के सर पर गिरा । उसके बाद पूरा परिसर फूलों से भर गया । सर्वत्र दिव्य सुगंध आने लगी । सब श्रोताओं ने देखा की यह किस वृक्ष के फूल है, ऐसे फूल कभी देखे नही, ऐसी सुगंध कभी मिली नही । श्रोताओं मे श्री रामकृष्ण दास (पंडित बाबाजी) भी बैठे थे, उन्होने श्रोताओं से कहां – गौरांग दास की कथा मे देवताओं ने फूल बरसाए है । यह फूल स्वर्ग के वृक्षो के है । बहुत से श्रोता वह फूल अपने साथ घर ले गए परंतु दो तीन दिन बाद वह फूल अंतर्धान हो गए, उसका कोई नमो निशान तक नही मिल पाया ।

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।

भागवत निवास के संतों के श्रीमुख से सुना हुआ प्रसंग ।

सुंदर कथा ११७ (श्री भक्तमाल – श्री हरिवंश देवाचार्य जी) Sri Bhaktamal – Sri Harivansh Devacharya ji

जब रसिक संत की कृपा से एक भूत को भी हुई दिव्य वृंदावन की प्राप्ति –

श्री निम्बार्क सम्प्रदाय के एक रसिक संत हुए है श्री हरिवंश देवाचार्य जी महाराज । एक बार वे युगल नाम का जप करते करते भरतपुर से गोवर्धन जा रहे थे ।

राधे कृष्ण राधे कृष्ण कृष्ण कृष्ण राधे राधे ।
राधे श्याम राधे श्याम श्याम श्याम राधे राधे ।।

बीच के एक गांव मे उन्होंने देखा की एक युवक को कुछ लोग चप्पल जूतों से पीट रहे है । श्री हरिवंश देवाचार्य जी ने उन लोगो से पूछा की इस युवक को चप्पलों से क्यो पीटा जा रहा है ? लोगो ने बताया की इसपर प्रेत चढ़ गया है और हम इसको लेकर गांव की सीमा पर रहने वाले एक अघोरी के पास लेकर प्रेत उतरवाने जा रहे है । अघोरी अपने उपास्य देवता को मांस और शराब का भोग लगता है और तंत्र क्रिया से भूत को उतरवा देता है । संत ने कहा – क्या मै इस युवक पर चढ़ा हुआ भूत उतार दूं ? लोगो ने कहां – इस गांव मे महीने मे एक दो बार किसी न किसको भूत पकड़ लेता है । आप तो आज इसका भूत उतारकर चले जाओगे पर कहीं उस अघोरी को इस बात का पता चल गया तो फिर वह नाराज हो जाएगा और किसीका भूत नही उतरवायेगा ।

संत ने कहा देखो इस युवक की अवस्था तो बहुत दयनीय हो गयी है यदि अभी इसका भूत नही उतारा तो यह मर भी सकता है, तुम उस अघोरी को मत बताना पर इसका भूत मुझे उतारने दो । लोगो ने कहां चलो ठीक है आप ही इसका भूत उतरवा दो । श्री हरिवंश देवाचार्य जी ने अपना सीधा हाथ उसके मस्तक से लगाकर कहां की यदि मैने श्री वृंदावन की उपासना सच्चे हृदय से की है । यदि मेरी इस उपासना की कथनी और करनी मे कोई अंतर नही है तो यह भूत इसको तत्काल छोड़ दे । वह भूत उसी क्षण सामने आकर खड़ा हो गया और कहने लगा – संत जी आप मुझपर कृपा करें, मुझे इस योनि मे बहुत कष्ट होता है । आपके इस युवक को स्पर्श करने के कारण और आपके दर्शन से मेरी पीड़ा शांत हो गयी है । श्री हरिवंश देवाचार्य जी ने पूछा – तुम यहाँ के लोगो को क्यों बार बार पकड़ते हो ?

भूत ने कहा – अघोरी के मन मे मांस और शराब पाने की लालसा होती है । वह अघोरी लोगो को मांस और शराब के बारे मे अच्छी बातें बताकर उन्हे खिला पिला देता है । ऐसे आहार से उन लोगो का शरीर अपवित्र हो जाता है और मै उनको बहुत ही सरलता से पकड़ लेता हूं । इस तरह वह अघोरी मुझसे काम करवाता है । बहुत पाप करने के कारण मै इस योनि मे पड गया हूं पर जब मै जीवित था उस समय एक बार मैने संतो से श्रीवृंदावन की महिमा सुनी थी । आप मुझपर कृपा करो । संत ने पूछा – कैसे कृपा करूँ ?

भूत बोला – आप जैसे रसिक संत की चरण रज ही वृंदावन की प्राप्ति करवा सकती है, आप कृपा करके अपने दाहिने चरण की रज प्रदान करो । संत ने जैसे ही सुना की यह भूत वृंदावन प्राप्त करने की इच्छा रखता है , वे प्रसन्न हो गए । पास खड़े लोगो ने हंसते हुए भूत से कहां – अरे तुम तो बड़े मूर्ख मालूम पड़ते हो । यहां नीचे झुककर स्वयं ही अपने हाथ से रज प्राप्त कर लो । इसपर भूत ने अत्यंत महत्वपूर्ण बात कही । भूत ने कहा – दो प्रकार के व्यक्तियों को संतो की चरण रज प्राप्त नही हो सकती , एक अभिमानी और दूसरा पापी ।

अभिमानी कभी संत के सामने झुकता नही और पापी व्यक्ति तो संत की किसी वस्तु का स्पर्श तक नही कर सकता । यदि संत अपनी ओर से कृपा करके उनकी चरण रज लेने की आज्ञा दे तब ही पापी को रज प्राप्त हो सकती है । यदि संत अनुमति देकर अपनी चरण रज लेने की आज्ञा देंगे तभी मै उसको स्पर्श कर सकूंगा । इस बात को सुनकर श्री हरिवंश देवाचार्य जी का हृदय द्रवित हो गया और उन्होंने अपना चरण उठाकर कहां – इस पदरज को लेकर अपने मस्तक से लगा । भूत ने जैसे ही उनकी पदरज अपने मस्तक से लगायी वैसे ही उसने दिव्य शरीर धारण कर लिया और उसने संत को प्रणाम करके कहां की आपकी कृपा से मै श्रीवृंदावन को जा रहा हूँ ।

इस घटना मे भूत के द्वारा २ महत्वपूर्ण बातें बताई गई थी –
१. अपवित्र अवस्था मे रहने वाले और अपवित्र वस्तुओं का सेवन करने वाले व्यक्तियों को भूत प्रेत सरलता से पकड़ सकते है।
२. दो प्रकार के व्यक्तियों को संतो की चरण रज प्राप्त नही हो सकती , एक अभिमानी और दूसरा पापी । संत की अनुमति के बिना पापी व्यक्ति संत की किसी भी वस्तु का स्पर्श तक नह कर सकता ।

राधे कृष्ण राधे कृष्ण कृष्ण कृष्ण राधे राधे ।
राधे श्याम राधे श्याम श्याम श्याम राधे राधे ।।

वृंदावन के एक रसिक संत के द्वारा मुझ दास को सुनाया गया प्रसंग मैने लिखने का प्रयास किया है । भूल चूक क्षमा करें ।

Image Credits : Shri Nimbarkacharya Peeth Page

सुंदर कथा ११६ (श्री भक्तमाल – श्री बिहारिन दास जी) Sri Bhaktamal – Sri Biharin das ji

रसिकाचार्यो की मानसी सेवा –

श्री बिहारिन देव जी महाराज वृंदावन के हरिदासी सम्प्रदाय के एक रसिक संत हुए है । श्री विट्ठल विपुल देव जी से विरक्त वेश प्राप्त करके भजन मे लग गए । श्री गुरुदेव के निकुंज पधारने के बाद बांकेबिहारी लाल जी की सेवा का भार बिहारिन देव के ऊपर था । एक दिन बिहारिन देव जी प्रातः जल्दी उठकर श्रीयमुना जी मे स्नान करने गए और उनका मन श्री बिहारी जी की किसी लीला के चिंतन मे लग गया । उनकी समाधि लग गयी और वे मानसी भाव राज्य मे ही अपनी नित्य सेवा करने लगे ।

प्रातः काल भक्त लोग और नित्य दर्शन को आने वाले ब्रजवासी मंगला आरती हेतु आये । बहुत देर तक पट नही खुले तो वहां के सेवको से पूछा – क्या आज प्यारे को जगाया नही गया? अभी तक मंगला आरती क्यो नही हुई? सेवको ने कहा की पट तो तभी खुलेंगे जब श्री बिहारिन देव जी यमुना स्नान से लौटेंगे क्योंकि ताले की चाबी उन्ही के पास है और सेवा भी वही करते है । बिहारिन देव जी की मानसी सेवा से समाधि खुली शाम ५ बजे और वे स्थान पर वापास आये ।

वैष्णवो और ब्रजवासियों ने पूछा – बाबा! कहां रह गए थे? आज बिहारी जी को नही जगाया , भोग नही लगाया , सुबह से कोई अता पता नही । बिहारिन देव जी बोले – बिहारी जी ने तो आज बहुत बढ़िया भोग आरोगा है । रसगुल्ला, दाल, फुल्का, पकौड़ी, कचौरियां, जलेबी खाकर बिहारी जी प्रसन्न हो गए । आज मैने ठाकुर जी को सुंदर गुलाबी रंग की पोशाख पहनायी है और केवड़ा इत्र लगाया है । सारा गर्भ गृह केवड़े की सुंदर सुगंध से महक रहा है ।

ब्रजवासी बोले – बाबा हम सुबह से यही बैठे है । ताला खोलकर तुम कब आये और कब बिहारी जी का श्रृंगार करके भोग धराया ? कैसी अटपटी बाते करते हो , क्यो असत्य बात करते हो? बाबा कोई नशा कर लिया है क्या ?

बाबा बोले –

कोऊ मदमाते भांग के , कोऊ अमल अफीम ।
श्री बिहारीदास रसमाधुरी, मत्त मुदित तोफीम ।।

कोई भांग के नशे मे मस्त रहता है तो कोई अफीम के परंतु बिहारीदास तो बिहारिणी बिहारी जी के रस माधुरी के नशे मे मस्त रहता है ।

बिहारिन दास जी ने आगे जाकर पट खोले तो सबने देखा की बिहारी जी ने सुंदर गुलाबी पोशाख पहनी है, गर्भगृह से केवड़े का इत्र महक रहा है और बगल मे भोग सामग्री भी वही रखी है जो बाबा ने बताई थी । सब समझ गए की बिहारिन दास जी सिद्ध रसिक संत है और इनको मानसी सेवा सिद्ध हो चुकी है ।

सुंदर कथा ११५ (श्री भक्तमाल – श्री गणेशदास जी) Sri Bhaktamal – Sri Ganeshdas ji

बाबा श्री गमेशदास भक्तमाली जी पर स्वयं श्री रामराजा सरकार की कृपा –

बाबा श्री गणेशदास भक्तमाली जी जब अपने विद्यार्थी जीवन की समाप्ति के बाद साधना के पथ पर निकले तो कुछ दिन विंध्याचल रहे, फिर चित्रकूट रहे और आगे चलते चलते जंगलों के रास्ते से ओरछा की तरफ बढ़े । जाते जाते रास्ता भटक गए , तीन दिन बाद जैसे तैसे ओरछा पहुंचे । तीन दिन से भूखे थे, इतनी भूख लगी कि वहां बेतवा नदी के तट पर बैठे बैठे थोड़ी मिट्टी खाकर जल पी लिया और वही सो गए । अगले दिन उठे तो सोचने लगे की आज तो एकादशी है, आज भी जल पीकर ही भजन करेंगे । भगवान के नाम का जाप करने बैठे उतने मे ही एक वैष्णव वहां आये और कहां की ब्रह्मचारी जी प्रणाम ! मै पंडित रामराजा ! यही ओरछा का रहने वाला हूं । आप भूख से पीड़ित लहते है । मेरे घर मे बहुत पवित्रता है अतः आप मेरे घर एकादशी का फलाहार करने पधारें । ब्रह्मचारी महाराज उनके साथ उनके घर गए और भगवान का प्रसाद पाकर वापस बेतवा नदी के तट पर आकर भजन करने लगे ।

अगले दिन द्वादशी के दिन पंडित राजाराम जी पुनः वहां आये और बोले – आज द्वादशी है ! शास्त्र कहता है की द्वादशी का पारायण करने से ही पुण्य मिलता है अतः आप प्रसाद पाने मेरे घर पधारें । कुछ दिन वही नदी किनारे रहकर भजन किया । एक दिन ब्रह्मचारी जी के मन आया कि चलो उन राजाराम पंडित से मिलकर आये और ओरछा मे निवास करने का कोई स्थान पूछा जाए । पूरे ओरछा मे घूम घूम कर पंडित राजाराम के घर का पता पूछा पर कुछ पता नही लगा, संध्याकाल होनेपर श्री रामराजा सरकार के मंदिर गए और वहां के पुजारी जी से पूछा – बाबा! आप की उम्र बहुत हो गयी यहां रहते रहते ।कृपया यह बताएं कि ओरछा मे कोई पंडित रामराजा निवास करते है क्या? पूरा ओरछा ढूंढ लिया पर पंडित रामराजा का कुछ पता नही लगा ।

पुजारी जी ने नेत्रों से अश्रु बहने लगे , उन्होंने कहा – वो कोई पंडित राजाराम नही थे, वे स्वयं रामराजा सरकार थे जिन्होंने आपको प्रसाद पवाया । मुझे श्री रामराजा सरकार ने स्वप्न दर्शन देकर कहा कि मेरा प्रिया भक्त काशी से ओरछा आएगा । आप उसके भोजन और निवास का इंतजाम मंदिर में ही कर दीजिए । कुछ महीने वही रहकर फिर श्री वृंदावन को आये ।

श्री भक्तमाल की विस्तृत व्याख्या –

श्री जगन्नाथ प्रसाद भक्तामाली जी जब विद्यार्थियों को भक्तमाल पढ़ाते थे तब भक्तमाल की विस्तृत व्याख्या उपलब्ध नही थी । एक बार उनके मन मे आया की भक्तमाल की विस्तृत व्याख्या होनी चाहिए । उन्होंने श्री सुदामा दास जी से भी इस बात को कहां । इस कार्य का निर्णय करने के लिए उन्होंने निश्चय किया की चित्रकूट से श्री रामेश्वर दास रामायणी जी को बुलाया जाए और बाबा श्री गणेशदास जी को बुलाया जाए । फिर सब संतो की सन्निधि मे कब, कैसे, कौन, कहां पर भक्तमाल की व्याख्या होगी इस बात पर चर्चा करेंगे । श्री रामेश्वर दास जी और बाबा श्री गणेशदास के पास संदेश पहुँचाया गया की अमुक दिन चर्चा के लिए सुदामा कुटी मे बैठक होगी । जिस दिन चर्चा होनी थी उसी दिन सुदामा कुटी मे संतो का विशाल भंडारा भी रखा गया था । उस दिन श्री गणेशदास जी सुदामा कुटी पहुंचे तो पंगत बैठ चुकी थी ।

सुदामा कुटी मे उस समय के कोतवाल थे श्री राम नारायणदास (कोतवाल बाबा) जी । वे त्रिकाल दाऊजी का प्रसाद भोग (भांग) ग्रहण करते थे । भांग प्रसाद लेने के बाद उनका अलग ही रंग ढंग हो जाता था । श्री गणेशदास जी बड़ी सामान्य सी बेषभूषा रखते थे, देखकर समझ नही आता था कोई संत महापुरुष है । कोतवाल ने कहां – ए ! कहां घुसे चले जाते हो, पंगत बैठ गयी है । न्योता है तुम्हारा ? कोई भी अंगला कंगला भीतर घुसे चले जाता है । चलो जाओ यहां से । पंगत मे नही घुसने दिया जाएगा । पंगत के बाद मिलेगा खाने को । बाहर मिलता है भिखारियों को, बाहर मिलेगा तुमको । फटकार के भगा दिया । बाबा गणेशदास जी ने कुछ नही कहा । वे शांति से बाहर चले गए । उस समय श्री लीलानंद ठाकुर (पागल बाबा) वही पास मे विराजते थे, वे रास्ते पर खिचड़ी प्रसाद की पंगत करा रहे थे । उन्होंने श्री गणेशदास जी को देखकर कहा – ओ बाबा! इधर आ, खिचड़ी खा ले । श्री गणेशदास जी ने वही सड़क पर बैठकर खिचड़ी प्रसाद पाया । उतनी देर मे सुदामा कुटी मे पंगत भी उठ गई । अब भीतर जाने मे कोई प्रतिबंध नही था ।

श्री गणेशदास जी भीतर गए तो श्री जगन्नाथ प्रसाद भक्तामाली आदि संतो ने कहा – सरकार हम सब आपके साथ प्रसाद पाने का ही इंतजार कर रहे थे । आपको आने मे थोड़ा विलंभ हो गया परंतु पहले हम सब प्रसाद पाते है उसके बाद चर्चा करेंगे । श्री गणेशदास जी ने कहा की आप सब प्रेम से प्रसाद पाओ, मैने अभी प्रसाद पाया है । सब संतो ने कहां – कहां पाया? आपको तो यहां प्रसाद पाना चाहिए था । श्री गणेशदास जी बोले – हमने यही पर पाया है । संतो ने पूछा – क्या पाया ? श्री गणेशदास जी बोले – खिचड़ी प्रसाद । संत बोले – हमारे यहां तो खिचड़ी प्रसाद बना ही नही, आपने कैसे पाया ? श्री गणेशदास जी बोले की मैने यही बाहर लीलानंद ठाकुर के यहां खिचड़ी प्रसाद पाया है । भूख लगी ही थी और संत ने आज्ञा भी किया कि खिचड़ी प्रसाद पाओ तो पा लिया । संतो ने कहा – की लीलानंद ठाकुर तो सड़क पर पंगत कराते है । श्री गणेशदास जी ने कहा की हमने सड़क पर बैठ कर ही प्रसाद पाया है ।

श्री गणेशदास जी ने कोतवाल बाबा की कोई शिकायत नही की और न कुछ बोले की उन्होंने हमें डांट फटकार के भगाया । संतो ने सब से पूछा तो पता लगा की इन्हें कोतवाल बाबा ने डांट कर कुछ सुनकर भगाया । संतो ने कहा की आपको कहना चाहिए था की हमे विशेष अतिथि के रूप में श्री सुदमादास जी और श्री जगन्नाथ प्रसाद जी ने गोवधान से बुलाया है । आप यह भी कह सकते थे की हमारे आने की सूचना अंदर जाकर महंत जी को दो । बाबा श्री गणेशदास हाथ जोड़ कर बोले की कोतवाल बाबा संत है, उनका वैष्णव वेश है । उन्होंने आज्ञा दिया की बाहर जाओ, हम चले गए । उसके बाद संतो ने पूछा की आपने ऐसे सड़क पर बैठकर प्रसाद क्यों पाया? श्री गणेशदास जी बोले की सम्पूर्ण श्री ब्रजमंडल सच्चिदानंद मय है । चार अंगुल बहु भूमि ऐसी नही है जो अपवित्र हो, सभी स्थानों पर संत और भगवंत के चरण पड़े है । भगवत प्रसाद कही भी बैठकर पाया जा सकता है – क्या बाहर और क्या भीतर ।

यह उत्तर सुनकर श्री जगन्नाथ प्रसाद भक्तामली जी के नेत्र बरस पड़े । उन्होंने कहा की जिस प्रयोजन के लिए चर्चा होनी थी वह तो पूरा हो गया । ऐसा मान अपमान से ऊपर उठा हुआ भक्त ही श्री भक्तमाल ग्रंथ पर लेखनी उठा सकता है । ऐसी संत, वैष्णव, ब्रजधाम के प्रति निष्ठा जिस भक्त मे हो वही श्री भक्तमाल ग्रंथ की विस्तृत व्याख्या कर सकता है । यह किसी सामान्य पढ़े लिखे या पंडित व्यक्ति के बस की बात नही है की केवल अपने पांडित्य के बल से भक्तमाल पर कलम चलाए । इसके बाद संतो की आज्ञा पाकर श्री गणेशदास जी एवं श्री रामेश्वर दास रामायणी जी द्वारा भक्तमाल ग्रंथ का ४ खंडों मे विस्तार हुआ जो आज श्री रामानंद पुस्तकालय (सुदामा कुटी) द्वारा प्रकाशित होते है ।

बाबाश्री गणेशदास जी के कृपापात्र श्री राजेन्द्रदासचार्य जी द्वारा मैने जैसा सुना वैसा लिखने का प्रयास किया । भूल चूक के लिए क्षमा करें ।