महर्षि च्यवन की अद्भुत गौ भक्ति और गौ माता का श्रेष्ठत्व ।

श्री च्यवन ऋषि महर्षि भृगु एवं देवी पुलोमा के पुत्र थे । उन्होंने अपने जीवन का बहुत बडा भाग नैष्ठिक ब्रह्मचर्य के साथ उग्र तपमें बिताया था । परम पावनी वितस्ता नदी के सुरम्य तटपर आहार विहार छोड़कर एक आसन से बैठकर उन्होंने बहुत बर्षोंतक कठिन तपस्या की थी । उनके शरीरपर वामी जम गयी और उसके ऊपर घास उग गयी थी । बहुत समय व्यतीत होने के कारण वह मिट्टीके टीले के समान प्रतीत होने लगा । दैववश उनकी चमकती हुई आंखो के आगे चीटेयों ने छेद का दिया था । एक बार परम धर्मात्मा राजा शर्याति अपनी रानियों तथा अपनी सुकन्या को अपने साथ लेकर सेना के साथ उसी जनमें विहार करने लगे । सुकन्या अपनी सखियों के साथ इधर उधर घूमती हुई उसी वामी के संनिकट जा पहुंची । वह बड़े कुतूहल के साथ उसे देखने लगी । देखते देखते उसकी दृष्टि महर्षि च्यवन की आंखोपर जा पडी जो कि चीटियो के बनाये छिद्रो से चमक रही थीं । सुकन्या ने परीक्षा के लियएक कांटे से उन नेत्रोंमे छेद कर दिया । छेद करते ही वहां से रक्त की धारा बह निकली । सब भयभीत होकर यह से चल दिए।इस महान् अपराध के कारण शर्यातिके सैन्य बल तथा अन्य सभी का मल मूत्रावरोध, मल मूत्र बंद होने के कारण सब बीमार से हो गए और समस्त सेना में हलचल मच गयी । राजा इम बातसे बहुत दुखित हुए ।राजा ने सोचा, यहाँ श्री च्यवन ऋषि का आश्रम है,कही कुछ अपराध तो नहीं हो गया? उन्होंने प्रत्येक व्यक्ति से पूछा कि किसीने कोई अपराध तो नहीं किया है तब सुकन्या ने अपने पिता को दुखित देखकर वामी से रक्त निकल ने की घटना सुनायी ।समाचार पाकर राजा दौड़े हुए उस वामी के समीप गये और मिट्टी हटायी । मिट्टी हटाते ही तेजोमूर्ति महर्षि च्यवन दिखायी पड़े । शर्याति साष्टाङ्ग प्रणाम कर कहने लगे -महाराज़ ! इस बालिका ने अज्ञान से आप को कष्ट पहुंचाया है । इसके लिये आप क्षमा करे ।च्यवन ऋषि बोले – मै इस अपराध को तभी क्षमा कर सकता हूँ ,जब तुम्हारी कन्या मुझे पतिरूप में स्वीकार करे । राजा जानता था की सुकन्या हमारी आज्ञा को सर्वदा स्वीकार करेगी अतः राजा ने कहा – इस कन्या को मैं आपकी सेवा में अर्पण करता हूँ । इसे आप भार्या के रूपमें स्वीकार करे । यह प्रेम से आपकी सेवा करेगी । परम दयालु महर्षि च्यवन ने राजा की प्रार्थना स्वीकार कर ली और अपराध क्षमा कर दिया । ऋषि के प्रसन्न होते ही सब संकट टल गए और राजा अपनी प्रजा सहित राज़धानी को चले गये । इधर सुकन्या भी अनन्य मनसे महर्षि की सेवामे लग गयी । उन्हीं दिनों रुग्ण मानवो की खोज में दोनों अश्विनीकुमार पृथ्वीपर विचरण कर रहे थे । संयोग से वे च्यवन ऋषि के आश्रम की ओरसे जा रहे थे । उस समय सुकन्या स्नान करके अपने आश्रम की ओर लौट रही थी । तप और नियम का पालन करके सुकन्या में अद्भुत तेज आ गया था । तेजस्वी सुकन्या को देखकर अश्विनीकुमारो को बहुत विस्मय हुआ । उन्होने उससे पूछा – तुम किसकी पुत्री और किसकी पत्नी हो ? सुकन्या ने अपने पिता और पति का नाम बताया, फिर अपना नाम भी बता दिया । अन्तमें कहा -मैं अपने पतिदेव के प्रति निष्ठा रखती हूँ । अश्विनी कुमारो ने परीक्षा की दृष्टि से कहा सुकन्या ! तुम अप्रतिम रूपवती हो, तुम्हारी तुलना किसी से नहीं की जा सकती । ऐसी स्थिति मे उस वृद्ध पति की उपासना कैसे करती हो, जो काम-भोग से शून्य है ? अत: च्यवन ऋषि को छोडकर हम दोनो मे से किसी एक को अपना पति चुन लो । सुकन्या ने नम्रता से कहा – महानुभावो ! आप मेरे विषय मेअनुचित आशंका न करें, मैं अपने पति में पूर्ण अनुराग रखती हूँ । प्रेम आदान नहीं, प्रदान चाहता है । पतिका सुख ही मेरा सुख है ।सुकन्या परीक्षाएँ उत्तीर्ण हो चुकी थी । दोनों देव वैद्यो को इससे बहुत संतोष हुआ । वे बोले हम दोनों देवताओं के श्रेष्ट वैद्य हैं । अभी एक और अंतिम परीक्षा होनी रह गयी थी । अश्विनीकुमारों ने कहा – तुम्हारे पति को हम अपने जैसा तरुण और सुंन्दर बना देंगे, उस स्थिति मे तुम हम तीनोमे से किसी एक को अपना पति बना लेना । यदि यह शर्त तुझे स्वीकार हो तो तुम अपने पति को बुला लो । सुकन्या को अपने पातिव्रत्य पर पूर्ण विश्वास था अतः वह च्यवन ऋषि के पास गयी ।सुकन्या ने जब च्यवन ऋषि से इस घटना को सुनाया तो सुन्दरता और यौवन पाने के लिये वे ललचा उठे , यद्यपि च्यवन ऋषि महान सिद्ध थे और तपोबल से यौवन प्राप्त कर सकते थे परंतु वे अपने तप को भौतिक कार्यो के लिए खर्च नहीं करना चाहते थे । च्यवन ऋषि अश्विनीकुमारो के अद्भुत चमत्कारो से भी अवगत थे, अत: सुकन्या के साथ वे अश्विनीकुमारो के पास पहुंचे । अश्विनीकुमारो ने सरोवर में कुछ औषधियां दाल दी और पहले तो च्यवन ऋषि को जलमें उतारा । थोडी देर बाद वे स्वयं भी उसी जलमे प्रवेश कर गये । एक मुहूर्ततक जलके अंदर अश्विनीकुमारो ने च्यवन ऋषि की चिकित्सा की और इसके बाद वे तीनों जब जलसे बाहर निकले तो तीनो के रूप रंग एवं अवस्था एक ही जैसी थी । उन तीनो ने सुकन्या से एक साथ ही कहा – हम तीनोमे से किसी एक को अपनी रुचि के अनुसार अपना पति बना लो और उसके गले में माला डाल दो।उसका पति कौन है, वह समझ नहीं पा रही थी ।अन्तमें उसके पातिव्रत्य धर्म ने उसका साथ दिया । सुकन्या ने कहा – यदि हमने स्वप्न में भी श्री च्यवन जी के अतिरिक्त किसी भी पुरुष का पुरुषभाव से स्मरण किया हो तो मुझे दिव्य दृष्टि प्राप्त हो । ऐसा कहते ही उसको अपने पति दिखाई पद गए और उसने अपने पति को पहचान कर माला पहना दी।
च्यवन मुनिने तरुण अवस्था, मनोवञ्चित रूप और पतिव्रता पत्नी को पाकर बहुत ही हर्षका अनुभव किया । वे देववैद्य अश्विनीकुमारो का आभार मानने लगे । ऋषि ने कहा – आप दोनों इस सेवा के बदले क्या चाहते हो ?यदि हम आपकी किसी प्रकार सहायता कर सके तो हमें प्रसन्नता होगी। तब अश्विनी कुमारो ने महर्षि से कहा की आप ही ऐसे समर्थ तेजस्वी ब्रह्मर्षि है जो हमें हमारा अधिकार पुनः प्राप्त करवा सकते है। इंद्र के श्रौत यज्ञ में सोमरस का निर्माण होता है और मंत्रोच्चारण द्वारा प्रधान द्ववताओ को सोमरस अर्पित किया जाता है। इंद्र हमें अपनी पंक्ति में नहीं बैठने देते, हमें चिकित्सक समझ कर पंक्ति में नहीं बैठने दिया जाता।
महर्षि च्यवन ने दोनों देवो से कहा – आप दोनो ने मुझे उपकार के बोझसे लाद दिया है, यह तभी हलका होगा, जब मैं आप दोनो को यज्ञमें देवराज इन्द्र के सामने ही सोमपान का अधिकारी बना दूंगा ।जर्जर बूढे का जवान हो जाना और देवताओ मे सबसे सुन्दर अश्चिनीकुमारों की सुन्दरता का उस शरीरमें उतर जाना- ये दोनों बातें ऐसी विलक्षण थीं कि बात ही बात मे सारी दुनिया में फैल गयीं । राजा शर्याति ने जब यह शुभ समाचार सुना तो उन्हे वह सुख मिला, जो सम्पूर्ण पृथ्वी का राज्य मिल जाने से ही हो सकता है । सुकन्या की माता तो प्रसन्नता से रो पडी । राजा पत्नी और सेनाके साथ महर्षि च्यवन के आश्रमपर आये । वहाँ च्यवन और सुकन्या की जोडी को सुखी देखकर पत्नीसहित शर्याति को इतना हर्ष हुआ कि वह रोमावलियों से फूट पडा । च्यवन ऋषिने आये हुए लोगोका अत्यधिक आदर किया । राजा और रानी के समीप बैठकर सुन्दर सुन्दर कथाएँ सुनायी । अन्त में च्यवन ने कहा -राजन् ! मैं आपसे यज्ञ कराऊँगा, आप तैयारी करें । महर्षि च्यवन के इस प्रस्ताव से राजा शर्याति बहुत प्रसन्न हुए और उन्होने महर्षि च्यवन के कथन का बहुत सम्मान किया । समय से यज्ञ प्रारम्भ हो गया । महर्षि च्यवन ने दोनो अश्विनीकुमारो को देनेके लिये हाथ मे सोमरस लिया । देवराज इन्द्र वही बैठे थै, उन्होने मुनि को मना किया और कहा कि मेरा मत यह है कि वैद्यवृत्ति के कारण इन्हें यज्ञमें सोमपान का अधिकार नहीं रह गया है ।च्यवन ने कहा – देवराज ! ये अश्विनी कुमार भी देवता ही हैं, इनमे उत्साह और बुद्धिमत्ता- ये दोनों भरे हुए हैं । रूपमें सब देवताओ से ये बढ़ चढकर हैं । इन्होने मुझे देवताओं के समान दिव्य रूप से युक्त और अजर बनाया है । फिर इन्हें यज्ञ में सोमरस का अधिकर कैेसे नहीं ?इन्द्र ने उत्तर देते हुए कहा – ये दोनों चिकित्सा का कार्य करते हैं और मनमाना रूप धारण करके मनुष्य लोक में भी विचरण करते हैं, ऐसी स्थिति में इन्हें सोमपान का अधिकार कैसे रह सकता है ? इन्द्र इस बात को बार बार दोहराने लगे । तब समर्थ महर्षि च्यवन ने इन्द्र के बातो की अवहेलना करके अश्विनीकुमारो को देने के लिये सोमरस उठा लिया । इन्द्र ने कहा – महर्षि च्यवन ! यदि तुम इन्हें सोमरस दोगे तो मैं तुमपर वज्र से प्रहार करुंगा । महर्षि मुसकराये और अश्विनीकुमारो को देने के लिये सोमरस हाथमे ले लिया । देवराज इन्द्र ने प्रहार करने के लिये वज्र उठा लिया । तब महर्षि च्यवन ने एक हुंकार करके इन्द्र की भुजा को ही स्तम्भित कर दिया और मंत्रो का उच्चारण कर अश्विनीकुमारो के लिये अग्नि में सोमरस की आहुति दे दी ।इसके बाद इन्द्र को मारने के लिये च्यवन ऋषि ने अपने तपोबल से एक कृत्या प्रकट कर दी। वह कृत्या बहुत ही भयानक थी । उसका नीचे का ओठ धरतीपर लगा हुआ था और दूसरा स्वर्गलोक तक पहुँच गया था । भयंकर गर्जना कर वह कृत्या इन्द्र को खानेके लिये दौडी, इन्द्र घबड़ा गये । उन्होने महर्षि च्यवन से कहा -आप मुझपर प्रसन्न हों, ये दोनों अश्विनीकुमार आजसे सोमपान के अधिकारी होंगे । इस कृत्या को आप हटा दें । मैने तो यह कार्य इस उद्देश्य से किया है, जिस से आपकी शक्ति अधिक से अधिक प्रकाश में आये तथा विश्व में सुकन्या और उसके पिता की कीर्तिका विस्तार हो । यह सुनकर महर्षि च्यवन का क्रोध शान्त हो गया, उन्होने देवेन्द्र के सब कष्टो को हटा लिया । **अन्य कल्पो की कथा अनुसार एक और कथा प्रचलित है -यौवन और सुन्दर रूप पाकर च्यवन ऋषि परम आनंदित हुए और उन्होंने प्रतिज्ञा की कि मै देव वैद्य अश्विनीकुमारो को यज्ञ में भाग दिलाऊँगा ।च्यवनमुनि के इस निश्चय से इन्द्र बहुत असंतुष्ट हुए और उन्होंने उनसे उनके दुराग्रह को छोड़ देनेके लिये कहा और ऐसा न करनेपर वज्र प्रहार भय भी दिखाया । पर च्यवनमुनि अडिग रहे । उन्होंने विचार किया कि जिन महेश्वर की सेवा में इन्द्र, वरुण आदि देवता निरत रहते है उन्ही की आज्ञासे सभी देवता अपना अपना कार्य करते हैं, जो सृष्टि, संरक्षण और संहार में सर्वथा समर्थ हैं मुझे उन्ही देवाधिदेव भगवान् शंकर की आराधना करनी चाहिये । इसीसे अभीष्ट सिद्धि होगी । ऐसा निश्चय करके महर्षि च्यवन महाकाल वनमें गये । वहां शिवलिंग की स्थापना कर भगवान् का पूजन करने लगे । उनका हठ देखकर इन्द्र कुपित हुए और उनको मारने के लिये वज्र चलाया, पर भगवान शिव ने पहलेही से इन्हें अभय कर दिया था, इसलिये इन्द्र की बाहुका स्तम्भन हो गया और च्यवन ऋषि के ऊपर वज्र चल न सका । इसी बीच उस लिङ्गमे से एक ज्योति निकली, जिसकी ज्वाला से त्रैलोक्य जलने लगा । उससे यब देवता संतप्त हो गये, वे सभी इन्द्र से अषिवनीकुमारों को यज्ञाभागी बनाने की प्रार्थना करने लगे । देवो के कहने पर भयभीत इन्द्रने च्यवन ऋषि को प्रणाम करते हुए कहा कि महर्षे ! आज से अश्विनी कुमारों को यज्ञका भाग मिलेगा और वे सोमपान भी कर सकेंगे । इस शिवलिङ्ग का नाम अब से ‘च्यबनेश्वर’ होगा और इसके दर्शनसे क्षणभरमे जन्म जमान्तर के पाप नष्ट हो जायेगे । मनको दुर्लभ कामनाएं भी इनकी आराधना से पूर्ण हो जायेगी । इतना कहकर इन्द्र सब देवों के साथ लेकर स्वर्ग को चले गये ।अब महर्षि च्यवन ने तप करने का निश्चय किया । महर्षि च्यवन अभिमान, क्रोध, हर्ष और शोक का त्याग करके महान् व्रत का दृढ़तापूर्वक पालन करते हुए बारह वर्षतक प्रयाग में गंगा जमुना जलके अंदर रहे । जल-जन्तु से उनका बड़ा प्रेम हो गया था और वे उनके आस पास बड़े सुख से रहते थे । एक बार कुछ मल्लाहों ने जल मे जाल बिछाया। जब जाल खींचा गया, तब उसमें जल-जन्तुओं-से घिरे हुए महर्षि च्यवन भी खिच आये । जाल में महर्षि च्यवन को देखकर मल्लाह डर ये और उनके चरणों में सिर रखकर प्रणाम करने लगे । जालके बाहर खिंचने से स्थलका स्पर्श होनेसे और त्रास पहुँचने से बहुत से मत्स्य तडपने और मरने लगे । इस प्रकार मत्स्यों का बुरा हाल देखकर ऋषि को बडी दया आयी और वे बारंबार लंबी साँस लेने लगे । मल्लाहों के पूछनेपर मुनिने कहा – यदी ये मत्स्य जीवित रहेंगे, तो मैं भी रहूँगा, अन्यथा इनके साथ ही मर जाऊँगा । मैं इन्हें त्याग नहीं सकता । मुनि की बात सुनकर मल्लाह डर गये और उन्होंने काँपते हुए प्रतिष्ठानपुर पहुँचे(वर्तमान समय में झुंसि कहा जाता है)। उस समय चंद्रवंशी चक्रवर्ती सम्राट महाराज नहुष का शासन था । जाकर सारा समाचार महाराज नहुष को मल्लाहों ने सुनाया ।
मुनिकी संकटमय स्थिति जानकर राजा नहुष अपने मंत्री और पुरोहित को साथ लेकर तुरंत वहाँ गये । पवित्र-भावसे हाथ जोड़कर उन्होंने मुनिको अपना परिचय दिया और उनकी विधिवत् पूजा करके कहा- ‘द्विजोत्तम ! आज्ञा कीजिये, मैं आपका कौंन-सा प्रिय कार्य करूँ ?प्रजा का अपराध राजा को लगता है। इन मल्लाहों द्वारा अपराध हुआ है। महर्षि च्यवन ने कहा- राजन्! इन मस्तन्होंने आज बड़ा भारी परिश्रम किया है । यह तो इनका रोजगार ही है। इन्होंने परिश्रम करके मुझे प्राप्त किया है अत: आप इनको मेरा और मछलियों का मूल्य चुका दीजिये । राजा नहुषने तुरंत ही मल्लाहों को एक हजार स्वर्णमुद्रा देने के लिये पुरोहित से कहा । इसपर महर्षि च्यवन बोले-एक हजार स्वर्णमुद्रा मेरा उचित मूल्य नहीं है । आप सोचकर इन्हें उचित मूल्य दीजिये । इसपर राजाने एक लाख स्वर्णमुद्रासे बढते हुए एक करोड़, अपना आधा राज्य और अन्तमें समूचा राज्य देनेकी जात कह दी; परंतु च्यवन ऋषि राजी नहीं हुए । उन्होंने कहा-आपका आधा या समूचा राज्य मेरा उचित मूल्य है, ऐसा मैं नहीं समझता । आप ऋषियोंके साथ विचार कीजिये और फिर जो मेरे योग्य हो, वही मूल्य दीजिये ।महर्षि का वचन सुनकर राजा नहुष को बडा खेद हुआ । वे अपने मन्त्रीऔर पुरोहितसे सलाह करने लगे । इतने ही में गायके पेटसे उत्पन्न एक फलाहारी वनवासी मुनि जिनका नाम गोजाति था, राजाके समीप आकर उनसे कहने लगे- महाराज ! ये ऋषि जिस उपायों से संतुष्ट होंगे, वह मुझे ज्ञात है । नहुष ने कहा -ऋषिवर ! आप महर्षि च्यवन का उचित मूल्य बतलाकर मेरे राज्य और कुल की रक्षा कीजिये । मैं अगाध दुख के समुद्र में डूबा जा रहा हूँ । आप नौका बनकर मुझे बचाइये । नहुष की बात सुनकर मुनि ने उन लोगो को प्रसन्न करते हुए कहा- महाराज ! ब्राह्मण सब वर्णोमे उत्तम हैं । अत: इनका कोई मूल्य नहीं आँका जा सकता। ठीक इसी प्रकार गौ माताओ का भी कोई मूल्य नहीं लगाया जा सकता । अतएव इनकी कीमत में आप एक गौ माता दे दीजिये । महर्षि की बात सुनकर राजा को बडी प्रसन्नता हईं और उन्होंने उत्तम व्रत का पालन करनेवाले महर्षि च्यवन के पास जाकर कहा- महर्षे ! मैंने एक गौ देकर आपको खरीद लिया है । अब आप उठने की कृपा कीजिये और अपनी तपस्या में पुनः कृपा कर के लग जाइये । मैंने आपका यही उचित मूल्य समझा है । महर्षि च्यवन ने कहा- राजेन्द्र ! अब मैं उठता हूं । आपने मुझे उचित मूल्य से भी अधिक देकर खरीद मुझे खरीद लिया है । मैं इस संसार मे गौओ केे समान दूसरा कोई धन नहीं समझता ।गायो केे नाम और गुणों का कीर्तन करना सुनना, गायो का दान देना और उनके दर्शन करना बहुत प्रशंसनीय समझा जाता है । ऐसा करने से पापोंका नाश और परम कल्याणकी प्राप्ति होती है । गायें लक्ष्मी की मूल हैं उनमें पाप का लेश भी नहीं है । वे मनुष्यों को अन्न और देवताओ को उत्तम हविष्य देती हैं । स्वाहा और वषट्कार नित्य गायों मे ही प्रतिष्ठित हैं । गौएँ ही यज्ञका संचालन करनेवाली और उसकी मुखरूपा हैं । गायें विकाररहित दिव्य अमृत धारण करती और दूहनेपर अमृत ही प्रदान करती हैं । वे अमृत की आधार हैं । समस्त लोक उनको नमस्कार करते हैं । इस पृथिवीपर गायें अपने तेज और शरीर में अग्नि के समान हैं । वे महान् तेजीमयी और समस्त प्राणियों की सुख देनेवाली हैं । गौओंका समुदाय जहाँ बैठकर निर्भयता से सांस लेता है वह स्थान चमक उठता है और वहांका सारा पाप नष्ट हो जाता है । गायें स्वर्ग की सीढी हैं और स्वर्ग में भी उनका पूजन होता है । वे समस्त कामनाओ को पूर्ण करनेवाली देवियों हैं । उनसे बढकर और कोई भी नहीं है । राजन्! यह जो मैंने गायोंका माहात्म्य कहा है सो केवल उनके गुणोंके एक अंशका दिग्दर्शनमात्र है । गौओ के सम्पूर्ण गुणो के वर्णन तो कोई कर ही नहीं सकता । तदनन्तर मल्लाहो ने मुनि से दी हुई गौ माता को स्वीकार करने के लिये कातर प्रार्थना की । मुनिने गौ माता स्वीकार करके कहा- मल्लाहों ! इस गोदान के प्रभाव से तुम्हारे सारे पाप नष्ट हो गये ।अब तुम इन जलमे उत्पन्न हुई मछलियोंके साथ स्वर्ग जाओ । देखते ही देखते महर्षि च्यवन के आशीर्वाद से वे मल्लाह तुरंत मछलियों के साथ स्वर्ग को चले गये । उनको इस प्रकार स्वर्ग को जाते देख राजा नहुष की बडा आश्चर्य हुआ । तदनन्तर राजा नहुष ने महर्षि च्यवन और गोजाति की पूजा की एवं उनसे धर्ममें स्थित रहने का वरदान प्राप्त किया ।फिर राजा अपने नगर को लौट आये और महर्षि अपने आश्रम को चले गये । (महाभारत, अनुशासनपर्व )पञ्च भूतो की अपेक्षा चेतना युक्त जीव – वृक्ष आदि वे अधिक श्रेष्ठ है , उनसे श्रेष्ठ चलने ,रेंगने वाले जीव श्रेष्ठ है,उनमे भी बहुत पैर वाले श्रेष्ठ है, उनसे भी श्रेष्ठ चार पैर वाले है ,उनमे से श्रेष्ठ मनुष्य है, उससे श्रेष्ठ प्रमथ गण है, उनसे श्रेष्ठ सिद्ध, चारण ,गन्धर्व है । उनकी अपेक्षा देव गण श्रेष्ठ है ,देवताओ में इंद्र श्रेष्ठ है ,उससे श्रेष्ठ मनु, प्रजापति है।उनसे श्रेष्ठ महादेव है, फिर ब्रह्मा जी और सबसे अंत में श्रीमन्नारायण ( शिव और विष्णु एक ही है, यह सृष्टि क्रम भागवत पुराण का होने के कारण इसमें विष्णु श्रेष्ठ बताये गए है ।शिव पुराण के क्रम अनुसार सृष्टि शिव से आरम्भ है ।) भगवान् श्रीमन्नारायण से भी श्रेष्ठ संत, ब्राह्मण है ऐसे कई ग्रंथो में प्रमाण है ।उन ब्राह्मणों में भी जो जन्म से कुलीन ब्राह्मण हो, उसमे तप और शास्त्र का ज्ञान हो वे ब्राह्मण ऋषि कहलाते है , ऋषियो में भी श्रेष्ठ ब्रह्मर्षि , महर्षि कोटि के जो ऋषि है ,वे सबसे श्रेष्ठ है । उसी ब्रह्मर्षि कोटि के महात्मा ,श्री च्यवन जी कह रहे है की हमसे अधिक श्रेष्ठ एक गौ माता है । जैसे राजर्षि दिलीप जी के चरित्र से ज्ञात होता है की एक सप्तद्वीपवती पृथ्वी के चक्रवर्ती सम्राट से अभी अधिक मूल्यवान एक गौ माता है उसी तरह इस चरित्र से ज्ञात होता है की एक महान ब्रह्मर्षि से भी अधिक महत्व एवं मूल्य एक गौ माता का है।अन्य गौ भक्तो के चरित्र दिए गए लिंक पर पढ़ सकते है :(१)गौ भक्त राजर्षि दिलीप जी(२)गौ भक्त श्री परशुराम जी(३)भगवान् शिव की गौ भक्ति

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