सुंदर कथा ७८ (श्री भक्तमाल – श्री हरिनाभ जी ) Sri Bhaktamal – Sri Harinabh ji

श्री हरिनाभ जी भगवत्कृपा प्राप्त सन्त थे । इनका जन्म ब्राह्मण कुल में हुआ था और इनकी सन्त सेवा में बडी ही निष्ठा थी । एक बार संन्यासियों की एक बडी मण्डली इनके गाँव में आयी, गाँव वालो ने उन्हें आपके यहाँ भेज दिया । संयोग से उस दिन श्री हरिनाभ जी के यहाँ तनिक भी सीधा सामान ( कच्चा अन्न ) नहीं था और न ही घर में रुपया-पैसा या आभूषण ही था, जिसे देकर दूकान से सौदा आ सकता ।

ऐसे में आपने अपनी विवाहयोग्य कन्या को एक सगोत्र ब्राह्मण के यहाँ गिरवी रख दिया कि पैसे की व्यवस्था होनेपर छुडा लेंगे । इस प्रकार पैसो की व्यवस्था करके आप सीधा सामान लाये और सन्त सेवा की । कुछ समय बाद जब इनके पास पैसे इकट्ठे हो गये तो आपने ब्राह्मण के पैसे लौटा दिये, परंतु फिर भी वह कन्या को वापस केरने में आनाकानी करता रहा ।

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सुंदर कथा ६५ (श्री भक्तमाल – श्री गोपाल जी ) Sri Bhaktamal – Sri Gopal ji

जाबनेर ग्राम में एक संतसेवी भक्त श्री गोपाल जी रहते थे । भगवान् से भक्त को  इष्ट मानने की, सेवा करने की प्रतिज्ञा उन्होंने की थी और उसका पालन किया । श्री गोपाल जी के कुल मे एक सज्जन (काकाजी) विरक्त वैष्णव हो गए थे । उन्होने सन्तो के मुख से इनकी निष्ठा प्रशंसा सुनी कि श्री गोपाल जी भक्तोंको इष्टदेव मानते हैं । तब वे विरक्त संत श्री गोपाल भक्त की परीक्षा लेने के विचार से उनके द्वारपर आये । इन्हें आया देखकर श्री गोपाल भक्त जी ने झट आकर सप्रेम साष्टांग दण्डवत् प्रणाम किया कि -भगवन् ! अपने निज घर में पधारिये । 

उन्होने (परीक्षा की दृष्टि से ) उत्तर दिया कि – मेरी प्रतिज्ञा है कि मैं स्त्री का मुख न देखूंगा । तुम्हरे घर के भीतर जाकर मैं अपनी इस प्रतिज्ञा को कैसे छोड दूं?तब श्री गोपाल जी ने कहा -आप अपनी प्रतिज्ञा न छोडिये। परिवार की सभी स्त्रियां एक ओर अलग छिप जायेंगी । आपके सामने नहीं आयेगी । ऐसा कहकर घर के अंदर जाकर उन्होने सब स्त्रियो को अलग कमरे में छिपा दिया । तब इनको अंदर ले आये । घर की स्त्रियां भी संतो में बड़ी निष्ठा रखती थी  अतः इसी बीच सन्त दर्शन के भाव् से या कौतुकवश एक स्त्री ने बहार झाँककर संत जी को देखा, स्त्री की झांकते ही उन संत ने गोपाल भक्त के गालपर एक तमाचा मारा । श्री गोपालजी के  मन मे जरा सा भी कष्ट नहीं हुआ । 

श्री गोपाल जीे हाथ जोडकर बोले – महाराज जी ! आपने एक  कपोल(गाल ) को तमाचा प्रसाद दिया, वह तो कृतार्थ हो क्या । दूसरा आपके कृपाप्रसाद से वंचित रह गया । अत: उसे रोष हो रहा है, एक गाल को तो संत की कृपा प्राप्त हो गयी और दूसरा बिना कृपा के ही रह गया । कृपा करके इस कपोलपर भी तमाचा  मारकर इसे भी कृतार्थ कर दीजिये । प्रियवाणी सुनकर उन वैष्णव संत के नेत्रो मे आसू भर आये । वह श्रीगोपाल जी के चरणो मे लिपट गए क्या और बोले – आपकी सन्तनिष्ठा अलौकिक है । मैने आकर आपकी परीक्षा ली । आज मुझे आपसे बहुत बडी यह शिक्षा मिली कि भक्त को अति सहनशील होना चाहिये तथा भगवान् के भक्त को भगवान् से भी बढकर मानना चाहिये । 

श्री भक्तमाल – नामाचार्य श्री हरिदास ठाकुर जी भाग २ Shri Bhaktamal – Namacharya Sri Haridas ji Part 2

यह चरित्र पूज्य श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जी की चैतन्य चरितावली ,त्रिदंडी पूज्य श्री नारायण गोस्वामी महाराज द्वारा लिखी पुस्तके और श्री  चैतन्य चरितामृत के आधार पर दिया गया है । कृपया अपने नाम से प्रकाशित ना करे ।www.bhaktamal.com ® 
विषधर सर्प का उपाख्यान

महात्मा हरिदास जी फुलिया के पास ही पुण्य सलिला माँ जाहन्वी के किनारे पर एक गुफा बनाकर उसमें रहते थे। उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गयी थी। नित्य प्रति वहाँ सैकड़ों आदमी इनके दर्शन करने के लिये तथा गंगा स्नान के निमित्त इनके आश्रम के निकट आया करते थे। जो भी मनुष्य इनकी गुफा के समीप जाता, उसके शरीर में एक प्रकार की खुजली होने लगती। लोगों को इसका कुछ भी कारण मालूम न हो सका। उस स्थान में पहुंचने पर चित्त में शांति तो सभी के होती, किंतु वे खुजली से घबड़ा जाते।

लोग इस विषय में भाँति-भाँति के अनुमान लगाने लगे। होते-होते बात सर्वत्र फैल गयी। बहुत से चिकित्सकों ने वहां की जलवायु का निदान किया, अन्त में सभी ने कहा, यहाँ कोई जरूर महाविषधर सर्प रहता है। न जाने कैसे हरिदास जी अभी तक बचे हुए हैं,श्वास से ही मनुष्य की मृत्यु हो सकती है। वह कहीं बहुत भीतर रहकर श्वास लेता है, उसी का इतना असर है कि लोगों के शरीर में जलन होने लगती है, यदि वह बाहर निकलकर जोरों से फुकांर करे, तो इसकी फुंकार से मनुष्य बच नहीं सकता।

हरिदास जी इस स्थान को शीघ्र ही छोड़कर कहीं अन्यत्र रहने लगें, नहीं तो प्राणों का भय है। चिकित्सकों की सम्मति सुनकर सभी ने हरिदास जी से आग्रह पूर्वक प्रार्थना की कि आप इस स्थान को अवश्य ही छोड़ दें। आप तो महात्मा हैं, आपको चाहे कष्ट न भी न हो किन्तु और लोगों को आपके यहाँ रहने से बड़ा भारी कष्ट होगा। दर्शनार्थी बिना आये रहेंगे नहीं और यहाँ आने पर सभी को शारिरिक कष्ट होता है। इसलिए आप हम लोगों का ही ख्याल करके इस स्थान को त्याग दीजिए।

हरिदास जी ने सबके आग्रह करने पर उस स्थान को छोड़ना मंजूर कर लिया और उन लोगों को आश्वासन देते हुए कहा, आप लोगों को कष्ट हो ये मैं नहीं चाहता यदि कल तक सर्प यहाँ से चला नहीं गया तो मैं कल शाम को ही इस स्थान का परित्याग कर दूँगा। कल या तो यहाँ सर्प ही रहेगा या मैं ही रहूंगा, अब दोनों साथ ही साथ यहाँ नहीं रह सकते।

इनके ऐसे निश्चय को सुनकर लोगों को बड़ा भारी आनंद हुआ। और सभी अपने-अपने स्थानों को चले गये। दूसरे दिन बहुत से भक्त एकत्रित होकर हरिदास जी के समीप श्री कृष्ण कीर्तन कर रहे थे कि उसी समय सब लोगों को उस अँधेरे स्थान में बड़ा भारी प्रकाश सा मालूम पडा। सभी भक्त आश्चर्य के साथ उस प्रकाश की ओर देखने लगे। सभी ने देखा कि एक चित्र – विचित्र रंगो का बड़ा भारी सर्प वहाँ से निकलकर गंगा जी की ओर जा रहा है।

उसके मस्तक पर एक बडी सी मणि जडी हुई है उसी का इतना तेज प्रकाश है। सभी ने उस भयंकर सर्प को देखकर आश्चर्य प्रकट किया। सर्प धीरे-धीरे गंगा जी के किनारे बहुत दूर चला गया। उस दिन से आश्रम में आने वाले किसी भी दर्शनार्थी के शरीर में खुजली नहीं हुई। संतो की तो दृष्टीमात्र से अविद्या का बंधन खुल जाता है तथा भगवान् भी कभी उनके वचनो का उल्लंघन नहीं करते।

सपेेरे मे अथिष्ठित नागराज वासुकी का उपाखयान 

एक दिन एक विशिष्ट व्यक्ति घर में एक सपेरा आया। सपेरे मे विष दन्त रहित सर्प के दंशन के साथ साथ मन्त्र के प्रभाव से सर्पो के अधिष्ठात देवता नागराज वासुकी का आवेश हो गया । मृदंग तथा मंजीरे की ध्वनि के साथ गाये जानेवाले गीत तथा सपेरे के द्वारा जपे जा रहे मन्त्र की शक्ति के प्रभाव को देखकर सभी मन्त्र मुग्ध हो रहे थे।

दैवयोग से श्री हरिदास ठाकुर भी वहाँ आ पहुंचे । वे भी एक और खडे होकर उस दृश्य को देखने लगे। देखते ही देखते मन्त्र के प्रभाव से उस सपेरे के शरीर में अधिष्ठित्त नागराज वासुकी (विष्णुभक्त शेष -अनन्त) स्वयं उसके माध्यम से उद्दण्ड नृत्य करने लगे । कालियद में कालिया के ऊपर चढकर अखिल क्लाओंके गुरु भगवान श्रीकृष्ण ने जिस प्रकार ताण्डव नृत्य किया था, उसी प्रकार की भाव भंगी को अवलम्बन करके सपेरा भी नृत्य करने लगा तथा कालिया नागके प्रति श्रीकृष्ण ने दण्ड देने के बहाने से जो अत्यधिक दया की थी, उस लीला से सम्बन्धित एक गीत गाने लगा।

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सुंदर कथा ५१(श्री भक्तमाल – नामचार्य श्री हरिदास ठाकुर जी) भाग १ Sri Bhaktamal -Namacharya Sri Haridas ji Part 1

नामाचार्य श्री हरिदास जी का स्वरुप

यह चरित्र पूज्य श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जी की चैतन्य चरितावली ,त्रिदंडी पूज्य श्री नारायण गोस्वामी महाराज द्वारा लिखी पुस्तके और श्री  चैतन्य चरितामृत के आधार पर दिया गया है । कृपया अपने नाम से प्रकाशित ना करे ।www.bhaktamal.com ®  

महाप्रभु के परिकर श्रीशिवानंद सेन के आत्मज श्री कविकर्णपूर ने स्वरचित श्री गौरगणोद्देश दीपिका नामक ग्रंथ में लिखा है –

ऋचीकस्य मुने: पुत्रो नाम्ना ब्रह्मा महातपा: ।
प्रह्लादेन समं जातो हरिदासाख्यकोऽपि सन् ।।
(श्री गौरगणोद्देश दीपिका ९३)

ऋचीक मुनि के पुत्र महातपा ब्रह्मा श्री प्रह्लाद के साथ मिलकर अब श्रीहरिदास ठाकुर कहलाते हैं।

मुरारिगुप्तचरणैश्चैतन्यचरितामृते।
उक्तो मुनिसुत: प्रातस्तुलसीपत्रमाहरण्।
अधौतमभिशप्तस्तं पित्रा यवनतां गत: ।
स एव हरिदास: सन् जात: परमभक्तिमान्।
(श्री गौरगणोद्देश दीपिका ९४-९५)

श्री मुरारिगुप्त द्वारा रचित श्रीचैतन्यचरितामृत ग्रन्थ (जो वर्तमान समय में श्रीचैतन्यचरित के नाम से प्रसिद्ध है) मे कहा क्या है कि किसी एक मुनिकुमार ने एक दिन प्रात:काल तुलसी पत्र चयन करके, उन्हें धोये बिना ही अपने पिता को भगवान् की सेवा के उद्देश्य से अर्पित कर दिये ये । इसी कारण उनके पिता ने उन्हें होने का अभिशाप दिया था ।

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सुंदर कथा ५०(श्री भक्तमाल – श्री राधावल्लभ चरण दास जी) Sri Bhaktamal – Sri Radhavallabh charan das ji

http://www.bhaktamal.com ® पूज्यपाद श्री हित शरण , श्री अम्बरीष एवं हरिवंशी संतो के भाव । कृपया अपने नाम से प्रकाशित ना करे ।

श्री राधावल्लभ मंदिर के एक बहुत अच्छे संत के जीवन का प्रसंग है जिनका नाम श्री राधावल्लभ चरण दास था ।  राजस्थान के एक राजपुत क्षत्रिय व्यक्ति एक बार वृन्दावन आये और श्री राधावल्लभ के रूप में आसक्त हो गए और श्री वृन्दावन में ही निवास करने लगे ।ये बहुत बलवान थे और राधावल्लभ मंदिर का जो बड़ा घंटा है उसको अपने हाथ में लेकर आरती के समय बजाते । 
एक समय महात्मा जी सेवा के लिए पुष्प लाने यमुना जी के समीप गए थे तब एक मगर ने उनका पैर पकड़ लिया। मगर का बल जल में बहुत अधिक होता है परंतु महात्मा प्रचंड बलवान थे । महात्मा ने कहा – हे प्रभु !ये मगर हमको आपकी सेवा करने से रोक रहा है। महात्मा जी बहुत बलवान थे ,उन्होंने  उस मगर को उठाया और कंधे पर रखकर वृन्दावन के गलियों ,कुंजो से घुमाकर लाये और श्री राधावल्लभ जी के मंदिर में ले आये। साधू संतो ने कहा – बाबा ये आफत कहा से लेके आ गए ।

महात्मा जी ने स्नान किया, प्रसाद उस मगर के मुख में डाला, प्रभु का चरणामृत मुख में डाला और भगवान् के दर्शन कराये । इसके बाद महात्मा जी उस मगर को ले जाकर पुनः यमुना जी के किनारे छोड़ आये। लौटने पर संतो ने पूछा – महाराज जी ! आपने उस मगरमछ को मंदिर में लाकर चरणामृत और प्रसाद पवाया, दर्शन कराया ,इसका कारण क्या है? उस क्रुर पशु को आप यहाँ उठा कर किस कारण से लाये ? 

महात्मा जी बोले – कुछ भी हो परंतु उस मगर ने संत के चरण पकडे थे। भाव से न सही परंतु संत चरण पकड़ने वाले पर कृपा कैसे न होती ? यदि हम उस मगर को मंदिर न लाते तो प्रभु कहते की मगर ने संत के चरण पकडे परंतु उसको क्या मिला? 

मेरे राधावल्लभ जी की बदनामी होते की राधावल्लभ जी के एक दास के चरण मगर ने पकडे और उसे कुछ न मिला ।प्रभु को लज्जा लगती अतः हमने उस मगर पर कृपा की ।

सुंदर कथा ४९(श्री भक्तमाल – श्री बहिणाबाई जी) Sri Bhaktamal – Sri Bahinabai ji

यह चरित्र जगद्गुरु श्री तुकाराम महाराज, देहु मंदिर साहित्य, संत श्री वामनराव जी एवं वारकरी संप्रदाय के संतो से सुनी जानकारी ,साहित्य के आधार पर दिया गया है ।कृपया अपने नाम से प्रकाशित ना करे। http://www.bhaktamal.com ® 

संत चरित्रों का श्रवण और मनन करना ,मानव के मन पर अच्छे संस्कार करने का श्रेष्ठ साधन है । पंढरपुर धाम मे विराजमान श्री कृष्ण ,पांडुरंग अथवा विट्ठल नाम से जाने जाते है। भगवान् श्री विट्ठल के अनन्य भक्त जगतगुरु श्री तुकाराम जी महाराज के कई शिष्य हुए परंतु स्त्री वर्ग में उनकी मात्र एक ही शिष्या हुई है जिनका नाम संत श्री बहिणाबाई था।

बहिणाबाई का जन्म मराठवाड़ा प्रांत में वैजपूर तालुका के  देवगांव में शेक १५५० में हुआ था।( बहुत से विद्वानों का मत है के जन्म १५५१ में हुआ था ।) इनके पिता का नाम श्री आऊ जी कुलकर्णी और माता का नाम श्री जानकीदेवी था। गाँव के पश्चिम दिशा में शिवानंद नामक महान तीर्थ है,जहाँ श्री अगस्त्य मुनि ने अनुष्ठान किया था। ग्रामवासियो की श्रद्धा थी  की इस तीर्थ के पास ‘लक्ष्यतीर्थ ‘ में स्नान करके अनुष्ठान करने से मनोकामना पूर्ण होती है । इसी तीर्थ पर श्री आऊ जी कुलकर्णी ने अनुष्ठान करने पर श्री बहिणाबाई का जन्म हुआ था ।

जन्म होते ही विद्वान पंडितो ने इनके पिता को बता दिया था की यह कन्या महान भक्ता होगी । जब बहिणाबाई  नौ वर्ष की थी उस समय देवगांव से १० मिल दूर शिवपुर से बहिणाबाई के लिए विवाह का प्रस्ताव आया। उनका विवाह चंद्रकांत पाठक नामक तीस वर्ष के व्यक्ति से तय किया गया और यह उसका दूसरा विवाह था । वह कर्मठ ब्राह्मण था और कुछ संशयी वृत्ति का  भी था। बहिणाबाई बाल्यकाल से ही बहुत सरल स्वभाव की थी, वह सोचती की हमरे पति ज्ञानी है और इस विवाह से वह अप्रसन्न नहीं हुई ।

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सुंदर कथा ४८(श्री भक्तमाल – श्री गणेशनाथ जी) Sri Bhaktamal – Sri Ganesh nath ji

छत्रपति शिवाजी महाराज के समय की बात है । मध्य प्रदेश के बालाघाट जिले में उज्जैनी के पास एक छोटे ग्राम में गणेशनाथ का जन्म हुआ । यह कुल भगवान् का भक्त था । माता पिता भगवान की पूजा करते और भगवन्नाम का कीर्तन करते थे । बचपन से ही गणेशनाथ में भक्ति के संस्कार पड़े । माता उन्हें प्रोत्साहित करती और वे तुतलाते हुए भगवान का नाम ले लेकर नाचते ।

पिता ने भी उन्हें संसार के विषयो में लगने की शिक्षा देने के बदले भगवान का माहात्म्य ही सुनाया था । धन्य हैं वे माता पिता, जो अपने बालक को विषतुल्य विषय भोगो में नहीं लगाते, बल्कि उसे भगवान के पावन चरणों में लगने की प्रेरणा देते हैं । पिता – माता से गणेशनाथ ने भगवन्नाम कीर्तन का प्रेम और वैराग्य का संस्कार पैतृक धन के रूपमें पाया । माता पिता गणेशनाथ की युवावस्था प्रारम्भ

होने के पूर्व ही परलोकवासी हो गये थे । घर मे अकेले गणेशनाथ रह गये । किंतु उन्हें अब चिन्ता क्या ? हरिनाम का रस उन्हें मिल चुका था । कामिनी काञ्चन का माया जाल उनके चित्त को कभी आकर्षित नहीं कर सका । वे तो अब सत्संग और अखण्ड भजन के लिये उत्सुक हो उठे । उन्होंने एक लंगोटी लगा ली । जाडा हो, गरमी हो या है वर्षा हो, अब उनको दूसरे किसी वस्त्र से काम नहीं था ।

वे भगवान् का नाम कीर्तन करते, पद गाते आनन्दमय हो नृत्य करने लगते थे । धीरे धीरे वैराग्य बढता ही गया । दिनभर जंगल में जाकर एकान्त में उच्चस्वर से नाम कीर्तन करते और रात्रि को घर लौट आते । रातको गाँव के लोगों को भगवान् की यथा सुनाते । कुछ समय बीतनेपर ये गांव छोड़कर पण्ढरपुर चले आये और वहीं श्री कृष्ण का भजन करने लगे । एक बार छत्रपति शिवाजी महाराज पण्ढरपुर पधारे । पण्ढरपुर में उन दिनों अपने वैराग्य तथा संकीर्तन प्रेम के कारण साधु गणेशनाथ प्रसिद्ध को चुके थे । शिवाजी महाराज इनके दर्शन करने गये । उस समय ये कीर्तन

करते हुए नृत्य कर रहे थे । बहुत रात बीत गयी, पर इन्हें तो शरीर का पता ही नहीं था । छत्रपति चुपचाप देखते रहे । जब कीर्तन समाप्त हुआ, तब शिवाजी ने इनके चरणोंमें मुकुट रखकर अपने खीमें में रात्रि विश्राम करने की इनसे प्रार्थना को । भक्त बड़े संकोच में पड़ गये । अनेक प्रकार से उन्होंने अस्वीकार करना चाहा, पर शिवाजी महाराज आग्रह करते ही गये । अन्त में उनकी प्रार्थना स्वीकार करके गणेशनाथ बहुत से कंकड़ चुनकर अपने वस्त्र में बाँधने लगे । छत्रपति ने आश्चर्य से पूछा -इनका क्या होगा? आपने कहा- ये भगवान् का स्मरण दिलायेंगे ।

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सुंदर कथा ४७(श्री भक्तमाल – श्री गीता दंडवती जोग परमानंद जी) Sri Bhaktamal – Sri Gita Dandvati Jog Parmanand ji

दक्षिण भारत के वारसी नामक प्रांत में महान भक्त जोग परमानन्द जी का जन्म हुआ था । जब ये छोटे बालक थे, इनके गाँव में भगवान की कथा तथा कीर्तन हुआ करता था । इनकी कथा सुनने में रुचि थी । कीर्तन इन्हें अत्यन्त प्रिय था । कभी रात को देरतक कथा या कीर्तन होता रहता तो ये भूख प्यास भूलकर मन्त्रमुग्ध से सुना करते । एक दिन कथा सुनते समय जोग परमानन्द जी अपने आपको भूल गये ।

व्यासगद्दीपर बैठे वक्ता भगवान् के त्रिभुवन कमनीय स्वरूप का वर्णन कर रहे थे । जोग परमानन्द का चित्त उसी श्यामसुन्दर की रूपमाधुरी के सागर में डूब गया । नेत्र खेला तो देखते हैं कि वही वनमाली, पीताम्बर धारी प्रभु सामने खडे हैं । परमानन्द की अश्रुधारा ने प्रभु के लाल लाल श्री चरणों को पखार दिया और कमललोचन श्रीहरि के नेत्रों से कृपा के अमृत बींदुओं ने गिरकर परमानन्द के मस्तक को धन्य बना दिया ।

लोग कहने लगे कि जोग परमानन्द पागल हो गये ।  संसार की दृष्टि मे जो विषय की आसक्ति छोडकर, इस  विष के प्याले को पटककर व्रजेन्द्र सुन्दर मे अनुरक्त होता  है, उस अमृत के प्याले को होटोंसे लगाता है, उसे यहांकी मृग मरीचिका में दौड़ते, तड़पते, जलते प्राणी पागल ही कहते हैं । पर जो उस दिव्य सुधा रस का स्वाद पा चुका, वह इस गड्ढे जैसे संसार के सड़े कीचड़ की और केसे देख सकता है । परमानन्द को तो अब परमानन्द मिल गया ।

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सुंदर कथा ४६(श्री भक्तमाल – श्री कर्माबाई ) Sri Bhaktamal – Sri Karmabai

श्री कर्माबाई जी नामकी एक भगवद्भक्ता देवी श्री पुरुषोत्तम पुरी (जगन्नाथ पुरी)में रहती थीं । इन्हें वात्सल्य भक्ति अत्यन्त प्रिय थी । ये प्रतिदिन नियमपूर्वक प्रात:काल स्नानादि किये बिना ही खिचडी तैयार करतीं और भगवान् को अर्पित करतीं थी । 

प्रेम के वश में रहनेवाले श्रीज़गन्नाथ जी भी प्रतिदिन सुघर- सलोने बालक के वेशमें आकर श्री कर्मा जी को गोद में बैठकर खिचडी खा जाते । श्री कर्मा जी सदा चिन्तित रहा करती थीं कि बच्चे के भोजन में कभी भी विलम्ब न हो जाय । इसी कारण वे किसी भी विधि विधान के पचड़े में न पड़कर अत्यन्त प्रेम से सबेरे ही खिचडी तैयार कर लेती।

एक दिन की बात है । श्री कर्मा जी के पास एक साधु आये । उन्होंने कर्मा को अपवित्रता के साथ खिचडी तैयार करके भगवान् को अर्पण करते देखा । घबराकर उन्होंने श्रीकर्माजी को पवित्रता के लिये स्नानादि की विधियां बता दीं । भक्तिमती श्री कर्मा जी ने दूसरे दिन वैसा ही किया । पर इस प्रकार खिचडी तैयार करते उन्हें देर हो गयी । उस समय उनका हृदय रो उठा कि मेरा प्यारा श्यामसुन्दर भूख से छटपटा रहा होगा ।

श्री कर्मा जी ने दुखी मन से श्यामसुन्दर को खिचडी
खिलायी । इसी समय मन्दिर में अनेकानेक घृतमय पक्वान्न निवेदित करने के लिये पुजारी ने प्रभु का आवाहन किया ।प्रभु  जूंठे मुँह ही वहाँ चले गये ।

पुजारी चकित हो गया । उसने देखा उस दिन भगवान् के मुखारविन्द में खिचडी लगी है । पुजारी भी भक्त था  उसका हदय क्रन्दन करने लगा । उसने अत्यन्त कातर होकर प्रभु से असली बात जानने की प्रार्थना को । 

भगवान ने कहा – नित्यप्रति प्रात:काल मैं कर्माबाई के पास खिचडी खाने जाता हूँ । उनकी खिचडी मुझे बडी मधुर और प्रिय लगती है । पर आज एक साधुने जाकर उन्हें स्नानादि की विधियाँ बता दीं ,इसलिये खिचडी बनने में देर हो गयी, जिससे मुझे क्षुधा का कष्ट तो हुआ ही, शीघ्रता में जूंठे मुँह आ जाना पडा ।

भगवान की आज्ञानुसार पुजारी ने उस साधु को  प्रभु की सारी बातें सुना दीं । साधु घबराया हुआ श्री कर्माजी के पास जाकर बोला- आप पूर्व की ही तरह प्रतिदिन सबेरे ही खिचडी बनाकर प्रभु को निवेदन कर दिया करे । आपके लिये किसी नियम की अनावश्यकता नहीं है । श्री कर्माबाई पुन: उसी तरह प्रतिदिन सवेरे भगवान को खिचडी खिलाने लगी ।

श्री कर्माजी परमात्मा के पवित्र और आनन्दमय धाम मे चली गयी, पर उनके प्रेमकी गाथा आज भी विद्यमान है । श्री जगन्नाथ जी के मंदिर में आज़ भी प्रतिदिन प्रात:काल खिचडी का भोग लगाया जाता है ।

सुंदर कथा ४५(श्री भक्तमाल – श्री खोजी जी) Sri Bhaktamal – Sri Khoji ji

श्री खोजी जी मारवाड़ राज्यान्तर्गत पालडी गाँव के निवासी थे । आप जन्मजात वैराग्यवान और भगवदनुरागी होने के कारण बचपन से ही गृहकार्य में उदासीन और भगवद्भज़न तथा साधुसंग में रमे रहते थे । इससे आपके भाइयों ली आप से नहीं पटती थी और वे लोग अपको निकम्मा ही मानते थे । एक बार आपके गाँव में एक सन्तमण्डली आयी हुई थी, आप रात दिन संतो की सन्निधि में रहकर कथाचार्ता और सत्संग में लगे रहते थे । 

इसी बीच दुर्भाग्य से एक दिन अचानक आपके पिताका
स्वर्गवास हो गया । जब सरि और्ध्वदैहिक कार्य सम्पन्न हो गये तो भइयो ने आपसे कहा कि पिताजी के अस्थिकलश को गंगाजी में प्रवाहित कर आओ, जिससे तुम भी पितृ – ऋण से मुक्त हो जाओ । इसपर आपने कहा – वैष्णव जन भगवान् के नाम का जहाँ उच्चारण करते हैं, वहां गंगा जी सहित सारे तीर्थ स्वयं प्रकट हो जाते हैं । 

जब भाइयों ने जबरदस्ती भेजा तो आपने सन्तो को साथ लिया और भगवन्नाम संकीर्तन करते हुए अस्थिकलश लेकर गंगाजी को चल दिये । मार्गमें आपको स्वर्णकलश लिये कुछ दिव्य नारियां दिखायी दीं । जब आप उनके समीप से गुजरने लगे तो वे पूछने लगी- भक्तवर ! आप कहां जा रहे हैं ? आपने कहा- मैं पिताजी के अस्थिकलश को श्री गंगाजी में प्रवाहित करने जा रहा हूं ।

उन दिव्य नारियों ने कहा  – हम गंगा यमुना आदि नदियां ही हैं, आप अपने पिताजी के अस्थिकलशका यहीं विसर्जन कर दीजिये और स्वयं स्नानकर घर चले जाइये । आपने ऐसा ही किया और भाइयों की प्रतीति के लिये एक कलश जल भी लेते गये ।

श्री खोजी जी के श्री गुरुदेव भगवच्चिन्तन में परम प्रवीण थे । उन्होंने अपने शरीर का अन्तिम समय जानकर अपनी मुक्ति के प्रमाण के लिये एक घंटा बांध दिया और सभी शिष्य सेवको से कह दिया कि हम जब श्री प्रभु को प्राप्ति कर लेंगे तो यह घटना अपने आप बज उठेगा । यहीं मेरी मुक्ति का प्रमाण जानना । परंतु आश्चर्य यह हुआ कि उन्होंने शरीर का त्याग तो कर दिया, परन्तु घंटा नहीं बजा ।

तब शिष्य सेवकों को बड़ी चिंता हुई । श्री गुरुदेव-जी के शरीर त्याग के समय श्रीखोजी जी स्थानपर नहीं थे । ये बाद में आये जब इनको समस्त वृतान्त विदित हुआ तो जहाँ श्रीगुरु जी ने लेटकर शरीर छोडा था, श्री खोजो जी ने  भी वहीं पौढ़कर ऊपर देखा तो इन्हें एक पका हुआ आम दिखायी पड़ा । इन्होंने उस आम को तोड़कर उसके दो टुकड़े कर दिये । उस में से एक छोटा सा जन्तु ( कीडा ) निकला और वह जन्तु सब के देखते देखते अदृश्य हो गया, घंटा अपने आप बज उठा ।

हुआ यूं कि श्री खोजी जी के गुरुदेव तो प्रथम ही प्रभु को
प्राप्त कर चुके थे, यह सर्व प्रसिद्ध है । परंतु बाद में शरीर त्याग के समय अच्छा पका हुआ फल देखकर, भगवान के भोग योग्य विचारकर उनके मनमें यह नवीन अभिलाषा उत्पन्न हुई कि इसका तो भगवान को भोग लगना चाहिये । भक्त की उस इच्छा को भक्तवश्य भगवान ने सफल किया ।