श्री खोजी जी मारवाड़ राज्यान्तर्गत पालडी गाँव के निवासी थे । आप जन्मजात वैराग्यवान और भगवदनुरागी होने के कारण बचपन से ही गृहकार्य में उदासीन और भगवद्भज़न तथा साधुसंग में रमे रहते थे । इससे आपके भाइयों ली आप से नहीं पटती थी और वे लोग अपको निकम्मा ही मानते थे । एक बार आपके गाँव में एक सन्तमण्डली आयी हुई थी, आप रात दिन संतो की सन्निधि में रहकर कथाचार्ता और सत्संग में लगे रहते थे ।
इसी बीच दुर्भाग्य से एक दिन अचानक आपके पिताका
स्वर्गवास हो गया । जब सरि और्ध्वदैहिक कार्य सम्पन्न हो गये तो भइयो ने आपसे कहा कि पिताजी के अस्थिकलश को गंगाजी में प्रवाहित कर आओ, जिससे तुम भी पितृ – ऋण से मुक्त हो जाओ । इसपर आपने कहा – वैष्णव जन भगवान् के नाम का जहाँ उच्चारण करते हैं, वहां गंगा जी सहित सारे तीर्थ स्वयं प्रकट हो जाते हैं ।
जब भाइयों ने जबरदस्ती भेजा तो आपने सन्तो को साथ लिया और भगवन्नाम संकीर्तन करते हुए अस्थिकलश लेकर गंगाजी को चल दिये । मार्गमें आपको स्वर्णकलश लिये कुछ दिव्य नारियां दिखायी दीं । जब आप उनके समीप से गुजरने लगे तो वे पूछने लगी- भक्तवर ! आप कहां जा रहे हैं ? आपने कहा- मैं पिताजी के अस्थिकलश को श्री गंगाजी में प्रवाहित करने जा रहा हूं ।
उन दिव्य नारियों ने कहा – हम गंगा यमुना आदि नदियां ही हैं, आप अपने पिताजी के अस्थिकलशका यहीं विसर्जन कर दीजिये और स्वयं स्नानकर घर चले जाइये । आपने ऐसा ही किया और भाइयों की प्रतीति के लिये एक कलश जल भी लेते गये ।
श्री खोजी जी के श्री गुरुदेव भगवच्चिन्तन में परम प्रवीण थे । उन्होंने अपने शरीर का अन्तिम समय जानकर अपनी मुक्ति के प्रमाण के लिये एक घंटा बांध दिया और सभी शिष्य सेवको से कह दिया कि हम जब श्री प्रभु को प्राप्ति कर लेंगे तो यह घटना अपने आप बज उठेगा । यहीं मेरी मुक्ति का प्रमाण जानना । परंतु आश्चर्य यह हुआ कि उन्होंने शरीर का त्याग तो कर दिया, परन्तु घंटा नहीं बजा ।
तब शिष्य सेवकों को बड़ी चिंता हुई । श्री गुरुदेव-जी के शरीर त्याग के समय श्रीखोजी जी स्थानपर नहीं थे । ये बाद में आये जब इनको समस्त वृतान्त विदित हुआ तो जहाँ श्रीगुरु जी ने लेटकर शरीर छोडा था, श्री खोजो जी ने भी वहीं पौढ़कर ऊपर देखा तो इन्हें एक पका हुआ आम दिखायी पड़ा । इन्होंने उस आम को तोड़कर उसके दो टुकड़े कर दिये । उस में से एक छोटा सा जन्तु ( कीडा ) निकला और वह जन्तु सब के देखते देखते अदृश्य हो गया, घंटा अपने आप बज उठा ।
हुआ यूं कि श्री खोजी जी के गुरुदेव तो प्रथम ही प्रभु को
प्राप्त कर चुके थे, यह सर्व प्रसिद्ध है । परंतु बाद में शरीर त्याग के समय अच्छा पका हुआ फल देखकर, भगवान के भोग योग्य विचारकर उनके मनमें यह नवीन अभिलाषा उत्पन्न हुई कि इसका तो भगवान को भोग लगना चाहिये । भक्त की उस इच्छा को भक्तवश्य भगवान ने सफल किया ।
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