सुंदर कथा ८३ (श्री भक्तमाल – श्री पवनपुत्र दास जी ) Sri Bhaktamal – Sri Pavanputra das ji

पूज्य संतो की कृपा से कुछ छिपे हुए गुप्त भक्तो के चरित्र जो हमने सुने थे वह आज अनायास ही याद आ गए । उनमे से एक चरित्र संतो की कृपा से लिख रहा हूं –

श्री पवनपुत्र दास जी नामक एक हनुमान जी के भोले भक्त हुए है । यह घटना उस समय की है जब भारत देश मे अंग्रेजो का शासन था । अंग्रेज़ अधिकारी के दफ्तरों के बाहर इनको पहरेदार (आज जिसे सेक्युरिटी गार्ड कहते है )की नौकरी मिली हुई थी । घर परिवार चलाने के लिए नौकरी कर लेते थे , कुछ संतो की सेवा भी हो जाया करती थी पैसो से । कभी किसी जगह में जाना पड़ता , कभी किसी और जगह जाना पड़ता । एक समय कोई बड़ा अंग्रेज़ अधिकारी भारत आया हुए था और पवनपुत्र दास जी को उनके निवास स्थान पर पहरेदारी करने का भार सौंपा गया । श्री पवनपुत्र दास जी ज्यादा पढ़े लिखे नही थे , संस्कृत आदि का ज्ञान भी उनको नही था परंतु हिंदी में श्री राम चरित मानस जी की चौपाइयों का पाठ करते और हनुमान चालीसा का पाठ लेते , ज्यादा कुछ नही आता था ।

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सुंदर कथा ४८(श्री भक्तमाल – श्री गणेशनाथ जी) Sri Bhaktamal – Sri Ganesh nath ji

छत्रपति शिवाजी महाराज के समय की बात है । मध्य प्रदेश के बालाघाट जिले में उज्जैनी के पास एक छोटे ग्राम में गणेशनाथ का जन्म हुआ । यह कुल भगवान् का भक्त था । माता पिता भगवान की पूजा करते और भगवन्नाम का कीर्तन करते थे । बचपन से ही गणेशनाथ में भक्ति के संस्कार पड़े । माता उन्हें प्रोत्साहित करती और वे तुतलाते हुए भगवान का नाम ले लेकर नाचते ।

पिता ने भी उन्हें संसार के विषयो में लगने की शिक्षा देने के बदले भगवान का माहात्म्य ही सुनाया था । धन्य हैं वे माता पिता, जो अपने बालक को विषतुल्य विषय भोगो में नहीं लगाते, बल्कि उसे भगवान के पावन चरणों में लगने की प्रेरणा देते हैं । पिता – माता से गणेशनाथ ने भगवन्नाम कीर्तन का प्रेम और वैराग्य का संस्कार पैतृक धन के रूपमें पाया । माता पिता गणेशनाथ की युवावस्था प्रारम्भ

होने के पूर्व ही परलोकवासी हो गये थे । घर मे अकेले गणेशनाथ रह गये । किंतु उन्हें अब चिन्ता क्या ? हरिनाम का रस उन्हें मिल चुका था । कामिनी काञ्चन का माया जाल उनके चित्त को कभी आकर्षित नहीं कर सका । वे तो अब सत्संग और अखण्ड भजन के लिये उत्सुक हो उठे । उन्होंने एक लंगोटी लगा ली । जाडा हो, गरमी हो या है वर्षा हो, अब उनको दूसरे किसी वस्त्र से काम नहीं था ।

वे भगवान् का नाम कीर्तन करते, पद गाते आनन्दमय हो नृत्य करने लगते थे । धीरे धीरे वैराग्य बढता ही गया । दिनभर जंगल में जाकर एकान्त में उच्चस्वर से नाम कीर्तन करते और रात्रि को घर लौट आते । रातको गाँव के लोगों को भगवान् की यथा सुनाते । कुछ समय बीतनेपर ये गांव छोड़कर पण्ढरपुर चले आये और वहीं श्री कृष्ण का भजन करने लगे । एक बार छत्रपति शिवाजी महाराज पण्ढरपुर पधारे । पण्ढरपुर में उन दिनों अपने वैराग्य तथा संकीर्तन प्रेम के कारण साधु गणेशनाथ प्रसिद्ध को चुके थे । शिवाजी महाराज इनके दर्शन करने गये । उस समय ये कीर्तन

करते हुए नृत्य कर रहे थे । बहुत रात बीत गयी, पर इन्हें तो शरीर का पता ही नहीं था । छत्रपति चुपचाप देखते रहे । जब कीर्तन समाप्त हुआ, तब शिवाजी ने इनके चरणोंमें मुकुट रखकर अपने खीमें में रात्रि विश्राम करने की इनसे प्रार्थना को । भक्त बड़े संकोच में पड़ गये । अनेक प्रकार से उन्होंने अस्वीकार करना चाहा, पर शिवाजी महाराज आग्रह करते ही गये । अन्त में उनकी प्रार्थना स्वीकार करके गणेशनाथ बहुत से कंकड़ चुनकर अपने वस्त्र में बाँधने लगे । छत्रपति ने आश्चर्य से पूछा -इनका क्या होगा? आपने कहा- ये भगवान् का स्मरण दिलायेंगे ।

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सुंदर कथा ४७(श्री भक्तमाल – श्री गीता दंडवती जोग परमानंद जी) Sri Bhaktamal – Sri Gita Dandvati Jog Parmanand ji

दक्षिण भारत के वारसी नामक प्रांत में महान भक्त जोग परमानन्द जी का जन्म हुआ था । जब ये छोटे बालक थे, इनके गाँव में भगवान की कथा तथा कीर्तन हुआ करता था । इनकी कथा सुनने में रुचि थी । कीर्तन इन्हें अत्यन्त प्रिय था । कभी रात को देरतक कथा या कीर्तन होता रहता तो ये भूख प्यास भूलकर मन्त्रमुग्ध से सुना करते । एक दिन कथा सुनते समय जोग परमानन्द जी अपने आपको भूल गये ।

व्यासगद्दीपर बैठे वक्ता भगवान् के त्रिभुवन कमनीय स्वरूप का वर्णन कर रहे थे । जोग परमानन्द का चित्त उसी श्यामसुन्दर की रूपमाधुरी के सागर में डूब गया । नेत्र खेला तो देखते हैं कि वही वनमाली, पीताम्बर धारी प्रभु सामने खडे हैं । परमानन्द की अश्रुधारा ने प्रभु के लाल लाल श्री चरणों को पखार दिया और कमललोचन श्रीहरि के नेत्रों से कृपा के अमृत बींदुओं ने गिरकर परमानन्द के मस्तक को धन्य बना दिया ।

लोग कहने लगे कि जोग परमानन्द पागल हो गये ।  संसार की दृष्टि मे जो विषय की आसक्ति छोडकर, इस  विष के प्याले को पटककर व्रजेन्द्र सुन्दर मे अनुरक्त होता  है, उस अमृत के प्याले को होटोंसे लगाता है, उसे यहांकी मृग मरीचिका में दौड़ते, तड़पते, जलते प्राणी पागल ही कहते हैं । पर जो उस दिव्य सुधा रस का स्वाद पा चुका, वह इस गड्ढे जैसे संसार के सड़े कीचड़ की और केसे देख सकता है । परमानन्द को तो अब परमानन्द मिल गया ।

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सुंदर कथा ४६(श्री भक्तमाल – श्री कर्माबाई ) Sri Bhaktamal – Sri Karmabai

श्री कर्माबाई जी नामकी एक भगवद्भक्ता देवी श्री पुरुषोत्तम पुरी (जगन्नाथ पुरी)में रहती थीं । इन्हें वात्सल्य भक्ति अत्यन्त प्रिय थी । ये प्रतिदिन नियमपूर्वक प्रात:काल स्नानादि किये बिना ही खिचडी तैयार करतीं और भगवान् को अर्पित करतीं थी । 

प्रेम के वश में रहनेवाले श्रीज़गन्नाथ जी भी प्रतिदिन सुघर- सलोने बालक के वेशमें आकर श्री कर्मा जी को गोद में बैठकर खिचडी खा जाते । श्री कर्मा जी सदा चिन्तित रहा करती थीं कि बच्चे के भोजन में कभी भी विलम्ब न हो जाय । इसी कारण वे किसी भी विधि विधान के पचड़े में न पड़कर अत्यन्त प्रेम से सबेरे ही खिचडी तैयार कर लेती।

एक दिन की बात है । श्री कर्मा जी के पास एक साधु आये । उन्होंने कर्मा को अपवित्रता के साथ खिचडी तैयार करके भगवान् को अर्पण करते देखा । घबराकर उन्होंने श्रीकर्माजी को पवित्रता के लिये स्नानादि की विधियां बता दीं । भक्तिमती श्री कर्मा जी ने दूसरे दिन वैसा ही किया । पर इस प्रकार खिचडी तैयार करते उन्हें देर हो गयी । उस समय उनका हृदय रो उठा कि मेरा प्यारा श्यामसुन्दर भूख से छटपटा रहा होगा ।

श्री कर्मा जी ने दुखी मन से श्यामसुन्दर को खिचडी
खिलायी । इसी समय मन्दिर में अनेकानेक घृतमय पक्वान्न निवेदित करने के लिये पुजारी ने प्रभु का आवाहन किया ।प्रभु  जूंठे मुँह ही वहाँ चले गये ।

पुजारी चकित हो गया । उसने देखा उस दिन भगवान् के मुखारविन्द में खिचडी लगी है । पुजारी भी भक्त था  उसका हदय क्रन्दन करने लगा । उसने अत्यन्त कातर होकर प्रभु से असली बात जानने की प्रार्थना को । 

भगवान ने कहा – नित्यप्रति प्रात:काल मैं कर्माबाई के पास खिचडी खाने जाता हूँ । उनकी खिचडी मुझे बडी मधुर और प्रिय लगती है । पर आज एक साधुने जाकर उन्हें स्नानादि की विधियाँ बता दीं ,इसलिये खिचडी बनने में देर हो गयी, जिससे मुझे क्षुधा का कष्ट तो हुआ ही, शीघ्रता में जूंठे मुँह आ जाना पडा ।

भगवान की आज्ञानुसार पुजारी ने उस साधु को  प्रभु की सारी बातें सुना दीं । साधु घबराया हुआ श्री कर्माजी के पास जाकर बोला- आप पूर्व की ही तरह प्रतिदिन सबेरे ही खिचडी बनाकर प्रभु को निवेदन कर दिया करे । आपके लिये किसी नियम की अनावश्यकता नहीं है । श्री कर्माबाई पुन: उसी तरह प्रतिदिन सवेरे भगवान को खिचडी खिलाने लगी ।

श्री कर्माजी परमात्मा के पवित्र और आनन्दमय धाम मे चली गयी, पर उनके प्रेमकी गाथा आज भी विद्यमान है । श्री जगन्नाथ जी के मंदिर में आज़ भी प्रतिदिन प्रात:काल खिचडी का भोग लगाया जाता है ।

सुंदर कथा ४५(श्री भक्तमाल – श्री खोजी जी) Sri Bhaktamal – Sri Khoji ji

श्री खोजी जी मारवाड़ राज्यान्तर्गत पालडी गाँव के निवासी थे । आप जन्मजात वैराग्यवान और भगवदनुरागी होने के कारण बचपन से ही गृहकार्य में उदासीन और भगवद्भज़न तथा साधुसंग में रमे रहते थे । इससे आपके भाइयों ली आप से नहीं पटती थी और वे लोग अपको निकम्मा ही मानते थे । एक बार आपके गाँव में एक सन्तमण्डली आयी हुई थी, आप रात दिन संतो की सन्निधि में रहकर कथाचार्ता और सत्संग में लगे रहते थे । 

इसी बीच दुर्भाग्य से एक दिन अचानक आपके पिताका
स्वर्गवास हो गया । जब सरि और्ध्वदैहिक कार्य सम्पन्न हो गये तो भइयो ने आपसे कहा कि पिताजी के अस्थिकलश को गंगाजी में प्रवाहित कर आओ, जिससे तुम भी पितृ – ऋण से मुक्त हो जाओ । इसपर आपने कहा – वैष्णव जन भगवान् के नाम का जहाँ उच्चारण करते हैं, वहां गंगा जी सहित सारे तीर्थ स्वयं प्रकट हो जाते हैं । 

जब भाइयों ने जबरदस्ती भेजा तो आपने सन्तो को साथ लिया और भगवन्नाम संकीर्तन करते हुए अस्थिकलश लेकर गंगाजी को चल दिये । मार्गमें आपको स्वर्णकलश लिये कुछ दिव्य नारियां दिखायी दीं । जब आप उनके समीप से गुजरने लगे तो वे पूछने लगी- भक्तवर ! आप कहां जा रहे हैं ? आपने कहा- मैं पिताजी के अस्थिकलश को श्री गंगाजी में प्रवाहित करने जा रहा हूं ।

उन दिव्य नारियों ने कहा  – हम गंगा यमुना आदि नदियां ही हैं, आप अपने पिताजी के अस्थिकलशका यहीं विसर्जन कर दीजिये और स्वयं स्नानकर घर चले जाइये । आपने ऐसा ही किया और भाइयों की प्रतीति के लिये एक कलश जल भी लेते गये ।

श्री खोजी जी के श्री गुरुदेव भगवच्चिन्तन में परम प्रवीण थे । उन्होंने अपने शरीर का अन्तिम समय जानकर अपनी मुक्ति के प्रमाण के लिये एक घंटा बांध दिया और सभी शिष्य सेवको से कह दिया कि हम जब श्री प्रभु को प्राप्ति कर लेंगे तो यह घटना अपने आप बज उठेगा । यहीं मेरी मुक्ति का प्रमाण जानना । परंतु आश्चर्य यह हुआ कि उन्होंने शरीर का त्याग तो कर दिया, परन्तु घंटा नहीं बजा ।

तब शिष्य सेवकों को बड़ी चिंता हुई । श्री गुरुदेव-जी के शरीर त्याग के समय श्रीखोजी जी स्थानपर नहीं थे । ये बाद में आये जब इनको समस्त वृतान्त विदित हुआ तो जहाँ श्रीगुरु जी ने लेटकर शरीर छोडा था, श्री खोजो जी ने  भी वहीं पौढ़कर ऊपर देखा तो इन्हें एक पका हुआ आम दिखायी पड़ा । इन्होंने उस आम को तोड़कर उसके दो टुकड़े कर दिये । उस में से एक छोटा सा जन्तु ( कीडा ) निकला और वह जन्तु सब के देखते देखते अदृश्य हो गया, घंटा अपने आप बज उठा ।

हुआ यूं कि श्री खोजी जी के गुरुदेव तो प्रथम ही प्रभु को
प्राप्त कर चुके थे, यह सर्व प्रसिद्ध है । परंतु बाद में शरीर त्याग के समय अच्छा पका हुआ फल देखकर, भगवान के भोग योग्य विचारकर उनके मनमें यह नवीन अभिलाषा उत्पन्न हुई कि इसका तो भगवान को भोग लगना चाहिये । भक्त की उस इच्छा को भक्तवश्य भगवान ने सफल किया ।

सुंदर कथा ४४(श्री भक्तमाल – श्री सीहा जी) Sri Bhaktamal – Sri Seeha ji

भक्त श्री सीहाजी बड़े ही नामनिष्ठ सन्त थे और सदा नाम संकीर्तन करते रहते थे । आपका संकीर्तन इतना रसमय होता था कि स्वयं भगवत भी विभिन्न वेश बनाकर उसमें आनन्द लेने पहुंच जाया करते थे । आप स्वयं तो कीर्तन करते ही थे, गाँव के बालकों को भी बुलाकर कीर्तन कराते थे । बलको को कीर्तन के अन्त में आप प्रसाद दिया करते थे, अत: वे भी खुशी खुशी पर्याप्त संख्या में आ जाया करते थे । एक बार ऐसा  संयोग बना कि तीन दिन तक आपके पास बांटने के लिये प्रसाद ही न रहा । 

इससे अपको बडी चिन्ता हुई, साथ ही दुख भी हुआ । आपको इस प्रकार चिन्तित देख चौथे दिन भगवान् स्वयं बालक बनकर आये और सबको उनकी इच्छा के अनुसार इच्छाभर लड्डू वितरित किये और फिर रात्रि में आपसे स्वप्न में कहा कि अब आपको चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है, प्रसाद न रहनेपर मैं स्वयं वेश बदलकर प्रसाद बांटा करूँगा, आप बस कीर्तन कराइये । अब भगवान प्रतिदिन वेश बदलकर आपके कीर्तन में सम्मिलित होने लगे ।

एक दिन वे एक सेठ के पुत्र का रूप धारण करके आये और कीर्तन में सम्मिलित हो गये । संयोग से वह सेठ भी उस दिन कीर्तन मे आ गया, जिसके पुत्रका रूप धारणकर भगवान् आये थे । सेठने अपने पुत्र के रूप में भगवान को देखा तो चकित रह गये; क्योंकि वे तो अपने पुत्र को घरपर छोड़कर आये थे, वे जल्दी से अपने घर गये तो वहाँ पुत्र को बैठे देखा। सेठजी ने सोचा मेरी आँखों को धोखा हुआ होगा और वे फिर से कीर्तन मे आ गये, परंतु यहाँ आनेपर फिर उन्हें अपने पुत्र के रूप मे भगवान् दिखायी दिये । सेठजी चकिता अब वे एक बार घर जाते और फिर वापस कीर्तन में आते और दोनों जगह अपने पुत्रक्रो देखते ।

अन्त मे हारकर उन्होंने यह बात श्री सीहाजी से कही । इसपर आपने कहा-‘ सेठजी ! आप घर जाकर अपने पुत्र को यही लेते आइये । जब सेठजी घर से अपने पुत्र को लेकर आये तो भगवान् अन्तर्धान हो गये । यह देखकर आप समझ गये कि सेठ के पुत्र के रूप मे स्वयं श्री भगवान् ही पधारे थे । इस प्रकार आपका संकीर्तन अत्यन्त दिव्य हुआ करता था ।

सुंदर कथा ४३(श्री भक्तमाल – श्री यतीराम जी) Sri Bhaktamal – Sri Yatiram ji

श्री यतीराम जी महाराज श्री रामानन्दी वैष्णव सम्प्रदाय के प्रवर्तक श्री रामानन्दाचार्यं जी महाराज के द्वादश प्रधान शिष्यो मे से एक श्री सुखानंदाचार्य जी के शिष्य थे । आप श्रीभगवान् के नाम गुणगान मे मग्न रहा करते थे, सदा
भाव जगत में रहने के कारण सामान्यज़नों को आप उन्मत्त की तरह प्रतीत होते थे ।

एक बार की बात है, किसी बादशाह की सवारी कहीं जा रही थी; साथ में बड़ा लाव लश्कर भी था । उन लोगों को किसी एक ऐसे आदमी की आवश्यकता थी, जो सामान के एक बड़े गट्ठर को सिरपर लादकर चले । आप अपनी मस्ती में घूमते हुए उधर जा निकले । फिर क्या था, बादशाह के यवन सिपाहियों ने इन्हें ही पकडकर इनके सिंरपर गट्ठर रखवा दिया । ये भगवान् की लीला स्मरण करते रहये और लीला भाव में ही मग्न चले जा रहे थे ।

सामान का गट्ठर भी भारी था, अत: एक जगह आप लड़खड़ा गये और गट्ठर गिर पड़ा । अब तो वे दुष्ट सिपाही इन्हें मारने लगे । आप तो क्रोध शोक आदि विकारों से मुक्त थे, परंतु अपने भक्त की ऐसी अवमानना और सिपाहियों की दुष्टता सर्वशक्तिमान भगवान् से न सही गयी । अचानक असंख्य गिरगिट वहां प्रकट हो गये और यवन सिपाहियों-को काटने लगे । वे जिधर भी भागते उधर ही गिरगिट प्रकट होकर उन्हें काटने लगते । 

सिपाहियों की यह दुर्दशा देखकर बादशाह समझ गया कि यह हिन्दू फकीर सिद्ध महापुरुष है । फिर तो वह रथ से उतरकर तुरंत आपके चरणों मे गिर पड़ा और क्षमा मांगने लगा । इसपर आपने कहा – भाई ! मैं आपसे नाराज ही कहां दूं जो क्षमा कर दूं! जो आपपर नाराज है और दण्ड है रहा है, उससे क्षमा मांगो ।

श्री परशुराम का कैलाश दर्शन , कैलाश पर श्री गणेश से युद्ध और श्री गणेश का एकदंत होना ।

परशुराम का कैलाश दर्शन

एक दिन की बात है, जमदग्नि नंदन परशुराम ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार पृथ्वी को क्षत्रियों से रहित कर दिया, तब वे अपने गुरु भूतनाथ शिव के चरणोंमें प्रणाम करने और गुरुपत्नी अम्बा शिवा तथा उनके नारायणतुल्य दोनों गुरुपुत्र कार्तिकेय और गणनायक को देखने की  लालसा से कैलास पहुँचे । वहाँ उन्होंने अत्यन्त अद्भुत कैलास पुरी का दर्शन किया । उक्त परम रमणीय पुरी की सुविस्तृत सड़के सोने की बनी थीं और उनपर शुद्ध स्कटिकतुल्य मणियां जडी थीं ।

उक्त पुरीमें चतुर्दिक सिन्दूरी रंगकी मणियों की वेदियों निर्मित थीं । वह राशि की राशि मुक्ताओ से संयुक्त और मणियों के मण्डपों से परिपूर्ण थी । सर्वभूतपति नीलकण्ठ के नगर में रत्नों और कांचनो से परिपूर्ण यक्षेन्द्र गणो से परिवेष्टित एक अरब दिव्य भवन थे, जिनके किवाड़, खम्भे और सीढियां मणियोंसे निर्मित थीं । उस शिवपुरी के दिव्य कलश सोने के बने थे । वहां रजत के श्वेत चवँर थे, जो रत्नाभूशणो से विभूषित थे ।

वहां स्वर्ग गंगा के तटपर उगे हुए पारिजात वृक्षो की भरमार थी । वहां की सड़कोंपर अनुपम सुन्दर बालक स्वच्छन्द क्रीडा करते एवं परस्पर हँस हंसकर वार्तालाप कर रहे थे । उस परम रमणीय नगर में सिद्धेन्द्रो की लाखों अट्टालिकाएँ थी , जो मणियों एवं रत्नो से निर्मित थीं । वहां निर्मल जलपूरित सहस्त्रो सरोवर सुगन्धित पुष्पो के सहस्त्रो पुष्पोद्यान एवं सुन्दरतम अविनाशी वटवृक्ष थे,जिनपर विभिन्न प्रकार के मनोहर पक्षी कलरव करते थे । सुगन्धित शीतल पद पवन बह रहा था । पढना जारी रखे

सुंदर कथा ४१(श्री भक्तमाल – श्री सींवा जी) Sri Bhaktamal – Sri Siwaji ji

श्री सींवा जी भगवद्भक्त सदृगृहस्थ थे । आपकी सन्त सेवा में बडी निष्ठा थी, इससे समाज में आपका सम्मान भी बहुत था । अपकी यह प्रतिष्ठा अनेक लोगोंकी ईर्ष्या का कारण बनी । उन लोगोंने राजा से आपकी शिकायत कर दी और उलटी पुलटी बाते बता दी । अविवे की राजा ने भी बिना कोई विचार किये अपको कैदखाने में डाल दिया । 

आपकी सन्त प्रकृति थी, अत: आपके लिये सुख दुख, मान अपमान सब समान ही थे; परंतु आपको इस बातका विशेष क्लेश था कि अब मेरी सन्त सेवा छूट गयी है । एक दिन एक सन्तमण्डली आपके घरपर आयी, जब आप को इस बातका पता चला तो आपको सन्तसेवा न कर पानेका बहुत दुख हुआ ।

सर्वसमर्थ प्रभु से अपने भक्त की सच्ची तड़पन और उसकी मानसिक पीडा देखी न गयी । उसी समय चमत्कार हुआ और आपकी हथकडी बेडी टूट कर जमीनपर गिर पडी, जेल के फाटक भी अपने आप खुल गये । आप सन्तो के पास पहुंच गये और भावपूर्वक उनकी सेवा को । 

राजा को जब यह वृत्तांत मालूम हुआ तो वह नंगे पैर भागकर आया और आपके चरणों में गिरकर क्षमा प्रार्थना करने लगा । आपके मनमें कोई विकार भाव तो था ही नहीं, अत: तुरंत ही क्षमा कर दिया । इस प्रकार श्री सींवाजी गृहस्थ में रहते हुए भी आदर्श सन्त थे ।

सुंदर कथा १६ (श्री भक्तमाल -श्री जयमलजी) Bhaktamal katha -Sri Jaymal ji

(१) श्री रघुलाल जी का जयमलजी के वचन की रक्षा करना:
श्री जयमलजी महाराज राजस्थान की मेड़ता रियासत के राजा थे। श्री जयमल जी रसिकशिरोमणि संत श्री हितहरिवंश महाप्रभू जी के शिष्य और श्रीराधा-मधवजी के अनन्य भक्त थे। गुरुदेव श्री हरिवंश महाप्रभु द्वारा प्रदान किया हुआ इनका उपासना मन्त्र तो श्री राधाकृष्ण मंत्र था परंतु इनके आराध्य तो धनुषधारी श्री रामजी थे। ठाकुरजी की सेवा पूजा में उनका बड़ा अनुराग था,उसमे उन्हें जरा भी व्यवधान स्वीकार नहीं था। वे नित्य १० घडी (४ घंटा )भजन पूजा किया करते। पूजा के  समय कोई कितनी भी महत्वपूर्ण राजकीय सूचना क्यों न हो,वे उसे नहीं सुनते थे और सन्देश देने वाले एवं व्यवधान करने वाले को मृत्युदंड की शिक्षा थी।

राजाका एक भाई था,परंतु वह राजासे ठीक विपरीत स्वभाव का था।उसे भगवान् की सेवा-पूजासे कोई मतलब नहीं था,साथ ही वह जयमलजी से द्वेष भी करता था। यद्यपि वह भी पास ही के राज्य मांडोवर जैसे समृद्ध राज्यका राजा था,पर उसकी महत्वाकांक्षा राजा जयमलके भी राज्यको हस्तगत कर लेने की थी। उसे किसी प्रकार राजाके सेवा- पूजाके नियमकी जानकारी हुई तो उसने एक कुटिल योजना बनायी ।

उस दुष्टने सोचा कि जब राजा जयमल पूजा कर रहे हो,तभी मेड़ता पर हमला कर देना चाहिए; क्योंकि मृत्युदंडके भयसे उन्हें कोई आक्रमण की सुचना देने नहीं जयेगा। ऐसा सोचकर उसने मेड़ता राज्य पर आक्रमण कर दिया। राज्यपर आये इस प्रकारके संकट को देखकर मंत्रियो ने विचार-विमर्श करके राजमातासे निवेदन किया कि आप ही महाराजको सूचना देनेमे समर्थ है, क्योंकि आपके प्रति पूज्य भाव होने से राजा आपको कुछ नहीं कहेंगे और उनतक सूचना भी पहुच जायेगी,फिर वे जैसा आदेश देंगे,हम लोग वैसा ही करेंगे,दूसरे किसीको भेजने पर महाराज उसकी बात भी न सुनेंगे और उसे प्राणदंड भी दे देंगे।

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