सुंदर कथा ४०(श्री भक्तमाल – श्री जयदेव जी) Sri Bhaktamal – Sri Jaidev ji

पूज्यपाद श्री गणेशदास जी की टीका गीता प्रेस अंक , राधसर्वेश्वर शरण देवाचार्य , बालकृष्णदेवचार्य के कृपाप्रसाद और निम्बार्क साहित्य के आधार पर लिखे भाव । कृपया अपने नाम से प्रकाशित ना करे । http://www.bhaktamal.com ®

निम्बार्क सम्प्रदाय के महान संत महाकवि श्रीजयदेव जी संस्कृत के कविराजों के राजा चक्रवर्ती सम्राट थे । शेष दूसरे सभी कवि आपके सामने छोटे बड़े राजाओं के समान थे । आपके द्वारा रचित  गीतगोविन्द महाकाव्य तीनों लोको में बहुत अधिक प्रसिद्ध एवं उत्तम सिद्ध हुआ । यह गीतगोविन्द कोकशास्त्र का, साहित्य के नवरसो का और विशेषकर उज्वल एवं सरस श्रृंगार रस का सागर है ।

इसकी अष्टपदियो का जो कोई नित्य अध्ययन एवं गान करे, उसकी बुद्धि पवित्र एवं प्रखर होकर दिन प्रतिदिन बढेगी । जहां अष्टपदियो का प्रेमपूर्वक गान होता है, वहाँ उन्हें सुनने के लिये भगवान् श्रीराधारमण जी अवश्य आते हैं और सुनकर प्रसन्न होते हैं । श्री पद्मावती जी के पति श्री जयदेव जी सन्तरूपी कमलवन को आनन्दित करनेवाले सूर्य के समान इस पृथ्वीपर अवतरित हुए ।

श्री जयदेव जी का जन्म और बाल्यकाल की लीलाएं –
कविसम्राट श्री जयदेव जी बंगाल प्रान्त के वीरभूमि जिले के अन्तर्गत किन्दुबिल्व नामक ग्राममें बसंत पंचमी के दिन पाँवह सौ साल पूर्व प्रकट हुए थे । आप के पिता का नाम भोजदेव और माता का नाम वामदेवी था । भोजदेव कान्यकुब्ज से बंगाल मे आये हुए पञ्च ब्राह्मणो में भरद्वाजगोत्रज श्रीहर्ष के वंशज थे । पांच वर्ष के थे तब इनके माता पिता भगवान् के धाम को पधार गए। ये भगवान ला भजन करते हुए किसी प्रकार अपना निर्वाह करते थे । पूर्व संस्कार बहुत अच्छे होने के कारण इन्होंने कष्टमें रहकर भी बहुत अच्छा विद्याभ्यास कर लिया था और सरल प्रेमके प्रभाव से भगवान् श्री कृष्ण की परम कृपा के अधिकारी हो गये थे ।

इनके पिता को निरंजन नामक उसी गांव के एक ब्राह्मण के कुछ रुपये देने थे । निरंजन ने जयदेव को संसार से उदासीन जानकर उनकी भगवद्भक्ति से अनुचित लाभ उठाने के विचार से किसी प्रकार उनके घर द्वार हथियाने का निक्षय किया । उस ने एक दस्तावेज बनाया और आकर जयदेव से कहा- देख जयदेव! मैं तेरे राधा कृष्ण को और गोपी कृष्ण को नहीं जानता ,या तो अभी मेरे रुपये ब्याज समेत है दे, नहीं तो इस दस्तावेज पर सही करके घर द्वारपर मुझें अपना कब्जा कर लेने दे ।

जयदेव तो सर्वथा नि:स्पृह थे । उन्हें घर द्वार में रत्तीभर भी ममता नहीं थी । उन्होंने कलम उठाकर उसी क्षण दस्तावेज पर हस्ताक्षर कर दिये । निरञ्जन कब्जा करने के तैथारी से आया ही था । उसने तुरंत घरपर कब्जा कर लिया । इतनेमें ही निरञ्जन की छोटी कन्या दौड़ती हुई आकर निरञ्जन से कहने लगी- बाबा ! जल्दी चलो, घरमें आग लग गयी; सब जल गया । भक्त जयदेव वहीं थे । उनके मनमें द्वेष हिंसा का कहीं लेश भी नहीं था, निरञ्जन के घरमें आग लगने की खबर सुनकर वे भी उसी क्षण दौडे और जलती हुई लाल लाल लपटोंके अंदर उसके घरमें घुस गये ।

जयदेव, घरमें घुसना ही था है कि अग्नि वैसे ही अदृश्य को गयी, जैसे जागते ही सपना! जयदेव की इस अलौकिक शक्ति को देखते ही निरञ्जन के नेत्रों मे जल भर आया । अपनी अपवित्र करनीपर पछताता हुआ निरंजन जयदेव के चरणो में गिर पड़ा और दस्तावेज़ को फाड़कर कहने लगा- देव ! मेरा अपराध क्षमा हो, मैने लोभवश थोडे से पैसों के लिये जान बूझकर बेईमानी से तुम्हारा घर द्वार छीन लिया ।

आज तुम न होते तो मेरा तमाम घर खाक हो गया होता । धन्य हो तुम ! आज़ मैंने भगवद्भक्त का प्रभाव जाना । उसी दिनर से निरञ्जन का हदय शुद्ध हो गया और वह जयदेव के संग से लाभ उठाकर भगवान के भजन कीर्तन में समय बिताने लगा । भगवान की अपने उपर इतनी कृपा देखकर जयदेव का हृदय द्रवित हो गया । उन्होंने घर द्वार छोड़कर पुरुषोत्तम क्षेत्र -पूरी जाने का विचार किया ।

पराशर नामक ब्राह्मण को साथ लेकर वे पुरी की ओर चल पड़े । भगवान का भजन कीर्तन करते हुए जयदेव जी चलने लगे । एक दिन मार्ग में जयदेव जी को बहुत दूरतक कहीं जल नहीं मिला । बहुत जोर की गरमी पड़ रही थी, वे प्यास के मारे व्याकुल होकर जमीन पर गिर पड़े । तब भगवान् स्वयं गोपाल बालक के वेष में पधारकर जयदेव को कपड़े से हवा की और जल तथा मधुर दूध पिलाया । तदनन्तर मार्ग बतलाकर उन्हें शीघ्र ही पुरी पहुंचा दिया । अवश्य ही भगवान् को उस वेषमे स समय जयदेव जी और उनके साथी पराशर ने पहचाना नहीं ।

जयदेव जी प्रेम मे डूबे हुए सदा श्रीकृष्ण का नाम गान  करते रहते थे । एक दिन भावावेश मे अकस्मात् उन्होंने देखा मानो चारों ओर सुनील पर्वत श्रेणी है, नीचे कलकल निनादिनी कालिन्दी बह रही है । यमुना तीस्पर कदम्ब के नीचे खडे हुए भगवान् श्री कृष्ण मुरली हाथ में लिये मुसकरा रहे हैं । यह दृश्य देखते ही जयदेवजी के मुखसे अकस्मात् यह गीत निकल पडा –

मेघैर्मेदुरमम्बरं वनभुव: श्यामास्तमालद्रुमैर्नक्तं
भीरुरयं त्वमेव तदिमं राधे गृहं प्रापय ।
इत्थं नन्दनिदेशतश्चलितयो: प्रत्यध्वकुञ्जद्रुमं राधामाधवयोर्जयन्ति यमुनाकूले रह:केलय: ।। 

पराशर इस मधुर गान को सुनकर मुग्ध हो गया । कहा जाता है, यहीं जयदेव जी  ने भगवान के दशावतारों के प्रत्यक्ष दर्शन हुए और उन्होंने जऐ जगदीश हरे की टेर लगाकर दसों अवतारों की क्रमश: स्तुति गायी । कुछ समय बाद जब उन्हें बाह्य ज्ञान हुआ, तब पराशर को साथ लेकर वे चले भगवान् श्री जगन्नाथ जी के दर्शन करने ।

आपका वैराग्य ऐसा प्रखर था कि एक वृक्ष के नीचे एक ही दिन निवास करते थे, दूसरे दिन दूसरे वृक्षके नीचे आसक्ति रहित रहते थे । जीवन निर्वाह करने की अनेक सामग्रियों मे से आप केवल एक गुदरी(मोटी चादर) और एक कमण्डलु ही अपने पास रखते थे और कुछ भी नहीं ।

श्री जयदेव जी का विवाह –

जगन्नाथ पुरी में ही सुदेव नामके एक ब्राह्मण श्री जगन्नाथ भगवान् के भक्त थे । उनके कोई सन्तान न थी, उन ब्राह्मण ने श्री जगन्नाथजी से प्रार्थना की कि यदि मेरे सन्तान होगी तो पहली सन्तान आपको अर्पण कर दूंगा । कुछ समय के बाद उसके एक कन्या हुई और जब द्वादश वर्षकी विवाह-के योग्य हो गयी तो उस ब्राह्मण ने श्री जगन्नाथ जी के मंदिर में उस कन्या (पद्मावती) को लाकर प्रार्थना की के हे प्रभो ! मैं अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार आपको भेंट करने के लिये यह कन्या लाया हूं । उसी समय श्री जगन्नाथ जी ने आज्ञा दो कि इस समय हमारे ही स्वरुप परमरसिक जयदेव नामके भक्त पुरी में विराज रहे हैं, अत: इसे अभी ले जाकर उन्हें अर्पण कर दो और उनसे कह देना कि जगन्नथ जी की ऐसी ही आज्ञा हुई है ।

भगवान् की आज्ञा पाकर वह ब्राह्मण वनमें वहां गया, जहां कविराजराज भक्त श्री जयदेव जी बैठे थे और उनसे बोला -हे महाराज ! आप मेरी इस कन्या को पत्नी रूप से अपनी सेवामें लीजिये, जगन्नाथजी की ऐसी आज्ञा है । जयदेवजीने कहा – जगन्नाथ जी की बात जाने दीजिये, वे यदि हजारों स्त्रियां भी सेवा में रखें तो उनकी शोभा है, वे समर्थ है । परंतु हमको तो एक ही पहाड के समान भारवाली हो जायगी। अत: अब तुम कन्या के साथ यहा से लौट जाओ ।

ये भगवान् की आज्ञाको भी नहीं मान रहे हैं, यह देखकर ब्राह्मण खीज गया और अपनी लड़की से बोला -मुझे तो जगन्नाथजी की आज्ञा शिरोधार्य है, मैं उसे कदापि टाल नहीं सकता है । तुम इनके ही समीप स्थिर होकर रहो । श्री ज़यदेव जी अनेक प्रकार की बातो से समझाकर हार गये, पर वह ब्राह्मण नहीं माना और अप्रसन्न होकर चला गया । तब वे बड़े भारी सोचमे पड़ गये । फिर वे उस ब्राह्मण की कन्यासे बोले -तुम अच्छी प्रकार से मनमें विचार करो कि तुम्हारा अपना क्या कर्तव्य है ? तुम्हारे योग्य कैसा पति होना चाहिये ? यह सुनकर उस कन्या ने हाथ जोड़कर कहा की मेंरा वश तो कुछ भी नहीं चलता है । चाहे सुख हो या दुख, यह शरीर तो मैंने आपपर न्यौछावर कर दिया है ।

श्री पद्मावती का भावपूर्ण निश्चय सुनकर श्री जयदेव जी ने प्रसन्न हुए । उन्होंने सोचा की भगवान् जगन्नाथ ही यही  इच्छा है ऐसा लगता है और प्रभु की इच्छा में अपनी इच्छा को मिला दिया। श्री जयदेव जी और श्री पद्मावती की का विवाह संपन्न हुआ । निर्वाह के लिये झोपडी बना कर छाया कर ली । अब छाया हो गयी तो उसमें भगवान् श्यामसुन्दर की एक मूर्ति सेवा करने के लिये पधरा ली ।

श्री गीतगोविन्द महाकाव्य की रचना :

श्री जयदेव जी प्रभु की सुमधुर लीला का दर्शन नित्य करते परंतु एक दिन मन में आया कि जिन प्रभु की लीलाओ का मै अपने उर अंतर में दर्शन करता हूं उसका गान करुँ ।परम प्रभु की ललित लीलाएँ जिसमें वर्णित हों, ऐसा एक ग्रन्थ बनाऊं और अपनी वाणी पवित्र करू। जिन जिन संतो ने प्रभु के मधुर स्वरुप का भजन किया उन्होंने गाकर किया है। उनके इस निश्चय के अनुसार अति सरस गीतगोविन्द महाकाव्य की रचना वे करने लगे ।

गीतगोविन्द लिखते समय एक बार श्री जयदेव जी को एक विलक्षण भाव का दर्शन हुआ की श्री श्यामसुंदर विरह कें ताप से तप्त है, वे श्री किशोरी जी से विनती करते है के आप अपना चरणकमल  मेरे मस्तकपर पधरा दीजिये । इस आशय का पद ग्रन्थ में लिखते समय सोच विचार मे पड़ गये कि इस गुप्त रहस्य को कैसे प्रकट किया जाय ?इस महाश्रृंगार रस को संसार के सामने प्रकट कैसे करू? कलम रुक गयी और सोचने लगे की क्या करे । सोच विचार करते करते संध्या हो गयी और संध्या में गंगा स्नान का नियम था ।आप स्नान करने चले गये ।

पीछे से श्रीकृष्ण जयदेव जी का रूप धारण कर आये और पद्मावती जी से पोथी मांगने लगे । पद्मावती ने कहा – प्रभु आज आप बिना स्नान किये लौट आये? जयदेव रूप धारी भगवान् ने कहा की एक भाव मन में आया है वह लिख देता हूं कही विस्मरण न हो जाए, पोथी में प्रभु ने जयदेव जी के मन में आयी हुई पंक्ति लिख दी ।पद्मावती जी का नियम था की से जयदेव जी को भोजन प्रसाद परोस कर ही वे भोजन करती थी। प्रभु ने सोचा आज आया हूं तो इनका आतिथ्य स्वीकार करना चाहिए । प्रभु ने कहा हमें जोर की भूख लगी है । पद्मावती ने भोजन परोसा और भोजन पाकर भगवान् चले गए और बाद में पद्मावती जी ने भी भोजन पाया । इतने में श्री जयदेव जी स्नान करके लौट आये और देखा तोह पद्मावती भोजन पा रही है ।उन्होंने कहा – पद्मावती आज तुमने पहले ही भोजन पा लिया ? तुम्हारा तो नित्य नियम है की हमारे भोजन पाने के बाद ही तुम भोजन करती हो।

पद्मावती ने कहा – जी प्रभु आप कैसी बाते कर रहे है ? अभी अभी अभी मैंने आपको भोजन पवाया है । आप ही ने आकर पोथी मांगी और उसमें कोई पद लिखा और भोजन करके चले गए । श्री जयदेव जी ने देखा कि वह पद जो अभिव्यक्त करने में संकोच हो रहा था वह पद पोथी में लिख दिया गया है । जयदेव जी समझ गए की प्रभु ने ही यह लीला की है  ।

जयदेव वेषधारी महमायावी श्री कृष्ण ने देहि मे पदपल्लवमुदारं लिखकर कविता की पूर्ति कर दी थी।

श्री जयदेवजी अति प्रसन्न हुए और पद्मावती से कहने लगे की तुम धन्य हो ,तुम्हारा सौभाग्य अखंड है की प्रभु ने तुम्हारे हाथ का भोजन पाया है। लपक कर पद्मावती जिस थाली में खा रही थी उसमे का उच्चिष्ठ जयदेव जी पाने लगे । यह देख कर पद्मावती जी को संकोच हुआ की मेरे पतीदेव आज ये क्या कर रहे है ।श्री जयदेव जी प्रभु की कृपा का अनुभव कर के कहने लगे – हे कृष्ण ! हे नंदनंदन !हे राधावल्लभ! हे व्रजांगनाधव आज आपने लिस अपराध से इस किंकर त्यागकर केवल पद्मावती का मनोरथ पूर्ण किया ? इस घटना के बाद उन्होंने  गीत गोविन्द को शीघ्र ही समाप्त कर दिया ।

श्री गीतगोविन्द की महिमा :

जगन्नाथ धाम में एक राजा पण्डित था । उसने भी एक पुस्तक बनायी और उसका गीतगोविन्द नाम रखा ।
उसमें भी से कृष्ण चरित्रों का वर्णन था । राजा ने ब्राहाणो को बुलाकर कहा कि यही गीतगोविन्द है । इसकी प्रतिलिपियां करके पढिये और देश देशांतर में प्रचार करिये ।

इस बात को सुनकर विद्वान् ब्राह्मणोंने असली गीत-गोविन्द को खोलकर दिखा दिया और मुसकराकर बोले कि यह तो कोई नयी दूसरी पुस्तक है, गीतगोविन्द नहीं है । राजा का तथा राजभक्त विद्वानोंका आग्रह था कि यही गीतगोविन्द है । अब इस बात से लोगों की बुद्धि भ्रमित हो गयी । कौन सी पुस्तक असली है, यह निर्णय करने के लिये दोनों पुस्तकें श्री जगन्नाथ देव जी के मन्दिर में रखी गयी । बाद में जब पट खेले गये तो देखा गया कि जगन्नाथ जी ने राजाकी पुस्तक को दूर फेंक दिया है और श्री जयदेव कवि कृत गीत-गोविन्द को अपनी छाती से लगा लिया है ।

इस दृश्यको देखकर राजा अत्यन्त लज्जित हुआ । अपनी पुस्तक का अपमान जानकर बड़े भारी शोक में पड़
गया और निश्चय किया कि अब मैं समुद्र में डूबकर मर जाऊँगा । जब राजा डूबने जा रहा था तो उस समय  प्रभुने दर्शन देकर आज्ञा दी कि तू समुद्र में मत डूब । श्री जयदेव कवि कृत गीतगोविन्द जैसा दूसरा ग्रन्थ नहीं को सकता है । इसलिये तुम्हारा शरीर त्याग करना वृथा है । अब तुम ऐसा करो कि गीतगोविन्द के बारह सर्गो में अपने बारह शलोक मिलाकर लिख दो । इस प्रकार तुम्हारे बारह रलोक उसके साथ प्रचलित हो जायेंगे, जिसकी प्रसिद्धि तीनों लोकों में फैल जायगी ।

श्री गीतगोविन्द का गान सुनने श्री जगन्नाथ जी का पधारना :

एकबार एक माली की लड़की बैंगन के खेत मे बैंगन तोड़ते समय गीतगोविन्द के पांचवें सर्ग की धीर समीरे यमुनातीरे वसति वने वनमाली  इस अष्टपदी का गान कर रही थी । उस मधुर गान को सुनने के लिये श्री जगन्नाथ जी जो उस समय अपने श्री अंगपर महीन एवं ढीली पोशाक धारण किये हुए थे, उसके पीछे पीछे डोलने लगे । प्रेमवश बेसुध होकर उस माली की लड़की के पीछे पीछे घूमन से कांटों में उलझकर श्री जगन्नाथ जी के वस्त्र फट गये । उस लड़की के गान बन्द करने पर भगवान मंदिर में पधारे ।

संध्या का दर्शन खुला तब फटे वस्त्रो को देखकर पुरीके राजाने आश्चर्य चकित होकर पुजारियों से पूछा -अरे ! यह क्या हुआ, ठाकुर जी के वस्त्र कैसे फट गये हैं ? पुजारियों ने कहा कि हमें तो कुछ भी मालूम नहीं है ।राजा ने सैनिको को भेजा तब खेत में भगवान् के फाटे हुए वस्त्र कांटो में फसे मिले।  तब स्वयं ठाकुर जी ने ही सब बात बता दी । जयदेव जी ने कहा – राजन् ! जो भीं इन अष्टपदियो का गान करता है ,श्री श्यामसुंदर वहा जाकर उसे सुनते है । राजा ने प्रभु की रुचि जानकर पालकी भेजी, उसमें बिठाकर उस लड़की को बुलाया । उसने आकर ठाकुर जी के सामने नृत्य करते हुए उसी अष्टपदी को गाकर सुनाया । प्रभु अत्यन्त प्रसन्न हुए । तब से राजा ने मंदिर में नित्य गीत गोविन्द गान की व्यवस्था है ।

उक्त धटना से गीत गोविन्द के गायन को अति गम्भीर रहस्य जानकर पुरीके राजाने सर्वत्र यह ढिंढोरा पिटवाया कि कोई राजा हो या निर्धन प्रजा हो, सभी को उचित है कि इस गीत गोविन्द का मधुर स्वरों से गान करे । उस समय ऐसी भावना रखे कि प्रियाप्रियतम श्री राधा श्यामसुन्दर समीप विराजकर श्रवण कर रहे हैं ।

गीतगोविन्द के महत्व को मुलतान के एक मुगल सरदार ने एक ब्राह्मण से सुन लिया । उसने घोषित रीति के अनुसार गान करने का निश्चय करके अष्टपदियों को कणठस्थ कर लिया । जब वह घोड़ेपर चढकर चलता था तो उस समय घोड़ेपर आगे भगवान् विराजे हैं ऐसा ध्यान कर लेता था, फिर गान करता था । एकदिन उसने घोड़ेपर प्रभु को आसन नहीं दिया और गान करने लगा, फिर क्या देखा कि मार्ग में घोड़े के आगे आगे मेरी ओर मुख किये हुए श्यामसुन्दर पीछे को चलते हैं और गान सुन रहे हैं । घोड़े से उतरकर उसने प्रभु के चरणस्पर्श किये तथा नौकरी छोड़कर विरक्त वेश धारण कर लिया ।

अतः आगे जो भी गीतगोविन्द का गान् करना चाहे वे लोग भगवान् को पहले आसान निवेदन करे ऐसी घोषणा राज्य में कर दिया गया । गीतगोविन्द का अनन्त प्रताप है, इसकी महिमाका वर्णन कौन कर सकता है, जिसपर स्वयं रीझकर भगवान ने उसमें अपने हाथसे पद लिखा है ।

श्री जयदेव जी की साधुता :

श्रीजयदेव जी को एक बार एक सेवक ने अपने घर बुलाया । दक्षिणा में आग्रह करके कुछ मुहरें देने लगा, आपके मना करने पर भी उसने आपको चद्दर में मुहरें बाँध दीं । आप अपने आश्रम को चले, तब मार्ग में उन्हें ठग मिल गये । आपने उनसे पूछा कि तुमलोग कहाँ जाओगे ? ठगोंने उत्तर दिया- जहाँ तुम जा रहे हो, वहीं हम भी जायेंगे । श्री जयदेवजी समझ गये कि ये ठग हैं । आप तो परम संत थे ,आपने गाँठ खेलकर सब मुहरें उन्हें दे दीं और कहा कि इनमे से जितनी मोहर आप लेना चाहें ले लें ।

उन दुष्टो ने अपने मनमें सोच समझकर कहा कि इन्होंने हमारे साथ चालाकी की है । अभी तो भयवश सब धन बिना माँगे ही हमें सोंप दिया है । परंतु इनके मनमें यही है कि यहाँ से तो चलने दो, आगे जब नगर आयेगा तो शीघ्र ही इन सबों को पकडवा दूँगा और दण्डित करवाऊंगा ।

चार ठगों ने आपस में विचार किया कि क्या करे । एक ने कहा धन लेकर इनके प्राण लेकर भाग चलो, दूसरे ने कहा मारकर क्या करे ?धन तो मिल गया। तब सबने निर्णय किया के न मारो न छोडो ,यह सोचकर उन ठगोंने श्री जयदेवजी के हाथ -पैर काटकर बड़े गड्ढे में डाल दिया और अपने अपने घरोंको चले गये ।जयदेव जी वहा पड़े पड़े मधुर स्वर में श्री युगल नाम संकीर्तन करने लगे।

थोड़े समय बाद ही वहाँ से एक राजा जिनक नाम लक्ष्मणसेन था ,वहाँ से निकल रहे थे ।राजा भक्तहृदय थे, उन्होंने युगलनाम संकीर्तन सुना तो सैनिको को आदेश दिया की ये वाणी कहा से आ रही है यह ढूंढ कर निकालो । सैनिको ने देखा की एक अंधकूप में श्रीज़यदेव जी संकीर्तन कर रहे हैं और गड्ढे में दिव्य प्रकाश छाया है तथा हाथ पैर  कटे होनेपर भी वे परम प्रसन्न हैं । तब उन्हें गड्डेसे बाहर निकालकर राजा ने हाथ पैर कटने का प्रसंग पूछा । जयदेवजी ने उत्तर दिया कि मुझे इस प्रकार का ही शरीर प्राप्त हुआ है । राजा समझ गए की ये परम संत है,किसीकी निंदा शिकायत नहीं करना चाहते ।

सच्चे संत को परिचय देने की आवश्यकता नहीं होती उनका आभामंडल ही सब बता देता है । श्री जयदेव जी के दिव्य दर्शन एवं मधुर वचनामृत को सुनकर राजाने मनमें विचारा कि मेरा बड़ा भारी सौभाग्य है कि ऐसे सन्तके दर्शन प्राप्त हुए । राजा उन्हें पालकी में बिठाकर घर ले आया । चिकित्सा के द्वारा कटे हुए हाथ पैरो के घाव ठीक करवाये, फिर श्री जयदेव जी से प्रार्थना  कि अब आप मुझे आज्ञा दीजिये कि कौन सी सेवा करूं ? श्री जयदेवजी ने कहा कि राजन्! भगवान् और भक्तो की सेवा कीजिये । ऐसी आज्ञा पाकर राजा साधु सेवा करने लगा ।

इसकी ख्याति चारों ओर फैल गयी की राजा लक्ष्मण सेन ने संत सेवा आरम्भ की है और सब सम्प्रदायो के संतो को केवल वेश देखकर राजा सेवा करते है।  एक दिन वे ही चारों ठग सुन्दर कण्ठी माला धारण कर राजा के यहां आये । उन्हें देखते ही श्री जयदेव जी पहचान गए । ठग डर गए की अब दंड मिलेगा । श्री जयदेव जी ने नाही उन्हें अन्य संतो के साथ रखने का विचार किया न अपने साथ रखाने का सोचा ,उनका विशेष सत्कार करवाने का विचार किया जिससे उनका सत्य सामने न आये और दंड से बच जाए। जयदेव जी ने अत्यन्त प्रसन्न होकर कहा – देखो, आज तो मेरे बड़े गुरु भाई लोग पधारे है।उन सबका उन्होंने बड़ा स्वागत किया।

श्री जयदेव जी ने शीघ्र राजा को बुलवाकर कहा कि इनकी प्रेम से यथोचित सेवा करके संत सेवाकर फल प्राप्त कर लो । आज्ञा पाकर राजा उन्हें भीतर महल में ले गया और अनेक सेवको को उनकी सेवा-में लगा दिया, परंतु उन चारोंके मन अपने पापसे व्याकुल थे, उन्हें भय था कि यह हमें पहचान गया है, राजासे कहकर मरवा देगा । वे राजासे बार बार विदा मांगते थे, पर राजा उन्हें जाने नहीं देता था । तब श्री जयदेव जी के कहनेपर राजाने अनेक प्रकार के वस्त्र रत्न आभूषण आदि देकर उन्हें विदा किया । धन और कीमती सामान साथ में था अतः राज ने साथमें कई मनुष्यों को भी भेजा ।

राजा के सिपाही गठरियों को लेकर उन उग सबको पहुंचा ने के लिये उनके साथ साथ चले, कुछ दूर जानेपर राजपुरुषो ने उन सन्तो से पूछा कि भगवन् ! राजा के यहां नित्य संत महात्मा आते जाते रहते हैं, परंतु राज के गुरुदेव जी ने जितना सत्कार आपका किया और राजासे करवाया है, ऐसा किसी दूसरे साधु सन्त का सेवा सत्कार आजतक नहीं हुआ । इसलिये हम प्रार्थना करते हैं कि आप बताइये कि स्वामी जी से आपका क्या सम्बन्ध है ?

उन्होंने कहा यह बात अत्यन्त गोपनीय है, हम तुम्हें बताते है पर तुम किसीसे मत कहना । पहले तुम्हारे स्वामी जी और हम सब एक राजा के यहां नौकरी करते थे । वहाँ इन्होंने बड़ा भारी अपराध किया,इन्होंने राजा का बहुत सा धन लूट लिया । राजा ने इन्हें मार डालने की आज्ञा दी परंतु हमने अपना प्रेमी जानकर इनको मारा नहीं ।केवल हाथ पैर काटकर राजा को दिखा दिया और कह दिया कि हमने मार डाला । उसी उपकार के बदले में हमारा सत्कार विशेष रूप से कराया गया है ।

उन साधु वेषधारियो के इस प्रकार झूठ बोलते ही पृथ्वी फट गयी और वे सब उसमें समा गये । इस दुर्धटना से राजपुरुष लोग आश्चर्य चकित हो गये । वे सब के सब दौड़कर स्वामीजी के पास आये और जैसा हाल था, कह खुनाया । उसके सुनते ही से जयदेव जी दुखी होकर हाथ-पैर मलने लगे । उसी क्षण उनके हाथ पैर पहले जैसे वापस आ गए ।  राजपुरुषो ने दोनों आश्चर्यजनक घटनाओ को राजा से कह सुनाया । हाथ पैर पहले जैसे पूरे हो जाने की घटना सुनकर राजा अति प्रसन्न हुआ । उसी समय वह दौड़कर श्री जयदेव जी के समीप आया और चरणों में सिर रखकर पूछने लगा  -प्रभो! मैं अधिकारी तो नहीं हूं परंतु कृपा करके इन दोनों चरित्रों का रहस्य खोलकर कहिये कि क्यों धरती फटी और उसमें सब साधु कैेसे समाये ? आपके ये हाथ पैर कैसे निकल आये ?

श्री जयदेव जी ने पहले बात को टालना चाहा । राजा ने स्वामीजी से जब अत्यन्त हठ किया तब उन्होंने सब बात खोलकर कह दी, फिर बोले कि देखो राजन् ! यह संतो का वेश अत्यन्त अमूल्य है, इसकी बडी भारी महिमा है । संतो।के साथ कोई चाहे जैसी और चाहे जितनी बुराई करे तो भी वे उस बुराई करनेवाले का बुरा न सोचकर बदले में उसके साथ भलाई ही करते हैं । साधुता का त्याग न करनेपर सन्त, महापुरुष एवं भगवान् श्री श्यामसुन्दर मिल जाते हैं ।

श्री जयदेव जी की पत्नी श्री पद्मावती जी का पतिप्रेम :

अब तक राजा ये नहीं जनता था की ये हमारे स्वामी जी जो महल में विराजते है यही जयदेव जी है ।राजा ने श्रीज़यदेव जी  का नाम तो सुना था, पर उसने कभी दर्शन नहीं किया था । आज जब उसने जाना की यही श्री जयदेव जी है ,उनके  नाम और गांव को जाना तो प्रसन्न होकर कहने लगा कि आप कृपाकर यहां विराजिये । आपके यहां विराजने से मेरे पूरे देश में प्रेमभक्ति फैल गयी है ।

राजा की अब इच्छा हुई की श्री जयदेव जी की पत्नी को भी महल में ही निवास करवाना चाहिए । श्री जयदेव जी की आज्ञा से राजा कीन्दुबिल्ब आश्रम से उनकी पत्नी श्री पद्मावतीजी को लिवा लाये । श्री पद्मावती जी रानी के निकट रनिवास में रहने लगी । एक दिन जब रानी पद्मावती के निकट बैठी थी उसी समय किसीने आकर रानीको सूचित किया कि तुम्हारा भाई युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुआ है और तुम्हारी भाभी जी उनके साथ सती हो गयी ।

यह सुनकर रानी को अत्यन्त आश्चर्य हुआ कि हमारी भाभी कितनी श्रेष्ठ सती साध्वी थी । श्री पद्मावती जी कोे इससे कुछ भी आश्चर्य न हुआ । उन्होंने रानी को समझाया कि पति के स्वर्गवासी होनेपर उनके मृत शरीर के साथ जल जाना उत्तम पातिव्रत सूचक है, परंतु सबसे श्रेष्ठ पातिव्रत की यह रीति है कि प्रियतम के प्राण छूट जायं तो अपने प्राण भी तुरंत उसी क्षण शरीर को छोड़कर साथ चले जायं ।

श्री पद्मावती जी ने रानी के भाभी की प्रशंसा नहीं की, इससे रानीने व्यंग्य करते हुए कहा कि आपने जैसी पतिव्रता बतायी ऐसी तो केवल आप ही हो । समय पाकर सब बात रानी ने राजा से कहकर फिर यों कहा आप स्वामी जी को थोडी देर के लिये बाग में ले जाओ, तब मैं इनके पातिव्रत की परीक्षा करुँगी । राजाने रानी-का विचार सुनकर कहा कि यह उचित नहीं है ।

जब रानीने बड़ा हठ किया, तब राजाने उसकी बात मानकर वैसा ही किया, राजा के साथ स्वामी जी के बागमें चले जानेपर रानी की सिखायी हुई एक दासी ने आकर पद्मावतीजी से कहा कि स्वामीजी भगवान के धाम को चले गये । यह सुनते ही रानी और समीप बैठी हुई स्त्रीयां दुख प्रकट करने के ढोंग को रचकर धरतीपर लेटने और रोने लगी । ध्यान लगाकर पद्मावती जी ने पति को जीवित जानकर थोडी देर बाद कहा -अजी रानीजी! मेरे स्वामी जी तो बहुत अच्छी तरह से हैं, तुम अचानक ही इस प्रकारर क्यों धोखे में आकर डर रही हो ?

रानी की माया का श्री पद्मावती जी पर कुछ भी प्रभाव नहीं हुआ, भेद खुल गया, इससे रानी को बडी लजा हुई । जब कुछ दिन बीत गये तो फिर दूसरी रानी ने उसी प्रकार की तैयारी कर के माया जाल रचा । श्री पद्मावती जी अपने मनमें समझ गयी कि रानी परीक्षा लेना चाहती है तो परीक्षा ही देना चाहिये । इस बार जैसे ही किसी दासी ने आकर कहा की स्वामी जी तो प्रभुको प्राप्त हो गये । वैसे ही झट पतिप्रेम से परिपूर्ण होकर श्री पद्मावती जीने अपना शरीर छोड़ दिया । इनके मृत शरीर को देखकर रानीका मुख कान्तिहीन सफेद हो गया ।

राजा आये और उन्होंने जब यह सब जाना तो कहने लगे कि इस स्त्री के चक्कर में आकर मेरी बुद्धि भी भ्रष्ट हो गयी, अब इस पाप का यही प्रायश्चित्त है कि मैं भी जल मरूं । श्री जयदेव-जी को जब यह समाचार मिला तो वे दौड़कर वहाँ पर आये और मरी हुई पद्मावती को तथा मरने के लिये तैयार राजा को देखा । राजाने कहा कि इनको मृत्यु मैंने दी है । जयदेव जी ने कहा -तो अब तुम्हारे जलने से ये जीवित नहीं हो सकती हैं । अत: तुम मत जलो। राजाने कहा-महारज ! अब तो मुझे जल ही जाना चाहिये; क्योकि मैंने आपके सभी उपदेशों को धुलमें मिला दिया ।

श्री जयदेवजी ने राजा को अनेक प्रकार से समझाया, परंतु उसके मन को कुछ भी शान्ति नहीं मिली, तब आपने गीत गोविन्द की एक अष्टपदी का गान आरम्भ किया । संगीत विधि से अलाप करते ही पद्मावती जी जीवित हो गयी । इतने पर भी राजा लज्जा के मारे मरा जा रहा था और आत्महत्या कर लेना चाहता था ।

वह बार बार मनमें सोचता था कि ऐसे महापुरुष का संग पाकर भी मेरे मनमें भक्ति का लेशमात्र भी नहीं आया । श्री जयदेव जी ने समझा बुझाकर राजा को शान्त किया  परंतु इस घटना के बाद श्री जयदेव ने कहा की अब हम महल में नहीं रह सकते ,हम अपने गाँव वापस जा रहे है क्योंकि न तुम इस घटना को भूलोगे न हम अतः रस में नीरस होगा और सेवा भजन ठीक से नहीं हो पायेगा ।वैसे भी साधू को अधिक समय दूसरे स्थान पर नहीं निवास करना चाहिए।  तुम भजन और संत सेवा में लगे रहना ।

श्री जयदेव जी की गंगा के प्रति निष्ठा और गंगा जी का आश्रम के निकट प्राकट्य :

श्री जयदेवजी का जहाँ आश्रम था, वहांसे गंगाजी की धारा अठारह कोस दूर थी । परंतु आप नित्य गंगा स्नान करते थे । जब आपका शरीर अत्यन्त वृद्ध हो गया, तब भी आप अपने गंगा स्नान के नित्य नियम को कभी नहीं छोड़ते थे । इनके बड़े भारी प्रेम को देखकर इन्हें सुख देनेके लिये रांत को स्वप्न में श्री गंगा जी ने कहा अब तुम स्नानार्थ इतनी दूर मत आया करो, केवल ध्यान में ही स्नान कर लिया करो । धारा में जाकर स्नान करनेका हठ मत करो ।

श्री जयदेव जी को धरा में न जाने पर अच्छा नहीं लगता। अतः इस आज्ञा को स्वीकार नहीं किया । तब फिर गंगाजी ने स्वप्न में कहा – तुम नहीं मानते को तो मैं ही तुम्हारे आश्नम के निकट सरोवर में आ जाऊँगी । तब आपने कहा-मैं कैसे विश्वास करुंगा कि आप आ गयी हैं । गंगाजी ने कहा जब आश्रम के समीप जलाशय में कमल खिले देखना, तब विश्वास करना कि गंगा जी आ गयी ।

ऐसा ही हुआ, खिले हुए कमलो को देखकर श्री जयदेव जी ने वहीं स्नान करना आरम्भ कर दिया ।अंतकाल में आपको श्री ब्रजभूमि में जाने का विचार हुआ। आपने अन्तकाल में श्री वृन्दावनधाम को प्राप्त किया और श्री राधामाधव के चरणकमलों की प्राप्ति की।

सुंदर कथा ४०(श्री भक्तमाल – श्री जयदेव जी) Sri Bhaktamal – Sri Jaidev ji&rdquo पर एक विचार;

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